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उपन्यास >> धरती और धन

धरती और धन

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :195
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7640

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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती।  इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।


‘‘यह तो ठीक बात नहीं माँजी ! यों तो कुछ ऐसा प्रतीत होता है कि पिताजी मान जायेंगे और स्वयं ही कन्या-दान करेंगे; परन्तु मैं पूछती हूँ कि यदि आपकी यह धारणा बनी रही, तो लड़कियों के जन्मसिद्ध अधिकारों का क्या होगा? क्या लड़कियों को अपना वर वरण करने की भी स्वतन्त्रता नहीं? क्या वे अपने माता-पिता तथा पति की अधीनता के लिए ही पैदा हुई हैं?’’

‘‘समय आने पर विचार कर लेंगे। कितने वर्ष की हो गई है ललिता?’’

‘‘वैसे तो उसके वयस्क होने में अभी डेढ़ वर्ष है, पर सम्भव है उससे पहले ही बात बन जाये।

‘‘देखिये माँजी ! सूसन बहिन की चिट्ठी गई थी कि मैं उसके पास आकर रहने लगूँ। मैं पत्र पर तीन मास तक विचार करती रही। यह विचारकर कि पिताजी कहीं इसे अस्वीकार न कर दे, मैं उनको कहने में डरती थी। उनसे लड़कर मैं यहाँ आ नहीं सकती थी। अब जीवन में वे ही तो मेरा आश्रय रह गये हैं।

‘‘ललिता के आग्रह पर मैंने माँ से बात की। वे मेरे प्रस्ताव को सुन स्तब्ध रह गईं। फिर कुछ विचारकर बोलीं, ‘कदाचित् यह भगवान् की ओर से ही कोई प्रपंच हो रहा है। क्या जाने यह ललिता के लिए जाने का मार्ग खुल रहा हो। मैं तुम्हारे पिता से बात करूँगी।’

‘‘दो दिन पश्चात् पिताजी ने भोजन के समय अपने-आप ही बात चला दी। उन्होंने मुझसे पूछ लिया, शकुन्तला ! तुम अपनी सौतन के साथ रहने के लिए जाना चाहती हो?’’

‘‘इस प्रश्न से मेरा हृदय बैठने लगा। मैं पिताजी से झगड़ा करना नहीं चाहती थी। मैंने धीरे से कहा, ‘सुसन ने निमन्त्रण दिया है।’

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