उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
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अगले वर्ष बिहारीलाल बी० ए० की परीक्षा देकर देवगढ़ आ गया। उसको यह तो विदित था कि शकुन्तला और सूसन ने अपने कार्य के क्षेत्र को फकीरचन्द से भी अधिक विस्तृत कर लिया है।
नदी पर नौकाओं का पुल बाँधा गया था, जो वर्ष में नौ मास तक खुला रहता था और लोग नदी के आर-पार सुगमता से आते-जाते थे।
सूसन ने रेशम पैदा करने और उसके रँगने का काम खोल दिया थ। रेशम के कीड़ों को पालने के लिए नदी के किनारे, जंगल के एक भाग में लकड़ी के शेड डालकर प्रबन्ध कर लिया गया था। वहाँ पर ही रेशम बटने और अटरने के करघे लगाये गये थे, जो हाथ से चलते थे। इस प्रकार सूसन के स्वप्न साकार होने लगे।
सूसन का अनुमान था कि जब यह काम पूरे बल से होने लगेगा, तो केवल इससे ही बीस हजार आय की आशा की जा सकती है।
रेशम और कपड़ा रँगना भी सूसन ने यहाँ आरम्भ करवा दिया था। ये सब काम देवगढ़ के लोगों को भी सिखाये जा रहे थे। सूसन ने लकड़ी के सन्दूक, जिनमें रेशम के कीड़े पाले जाते थे, गाँव के कई लोगों के घरों में रखे थे। वह कीड़ो के अण्डे अपने फार्म पर पैदा करती थी और गाँव वालों के पास बेच देती थी। साथ ही उसने रेशम अटरने और बटने की लकड़ी की चरखियाँ दे रखी थीं, जिनसे वे रेशम की अट्टियाँ बनाकर सूसन के पास बेच जाते थे। फिर वह उन अट्टियों को रँगकर अथवा ऐसे ही बम्बई बेचने के लिए भेज देती थी।
इसके अतिरिक्त सूसन ने फलों के बगीचे लगवाये थे। उनमें नींबू, पपीता तो अभी तैयार हो रहे थे। सन्तरे, अंगूर, अनार, अमरूद आदि अभी फल नहीं देने लगे थे।
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