उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
एक दिन माँ ने बिहारीलाल से बम्बई के विषय में पूछते हुए ललिता के विषय में पूछ लिया, ‘‘कैसी है वह अब?’’
‘‘ठीक है ! मैं आने से पहले उससे मिलने गया था। मैंने उससे पूछा था, ‘शकुन्तला से मिलने चलोगी?’ वह बोली, ‘हमें न कोई ले जाता है, न कोई भेजता है।’ इतना कहते-कहते उसकी आँखें भर आई थीं और वह अपने कमरे की ओर भाग गई थी।
‘‘मैंने उसकी माँ से मिलकर इस घटना का वर्णन किया, तो वह कहने लगी, ‘अब विवाह हो जाना चाहिए। प्रश्न तो यह है कि इस बात को कौन, किस प्रकार आरम्भ करे? अन्तिम-पत्र जो सेठजी और फकीरचन्द के भीतर लिखे गये हैं, बहुत बड़ी बाधा बन रहे हैं। उनकी उपस्थिति में, मेरा कुछ कहने का साहस नहीं होता। मैं तो ललिता के इक्कीस वर्ष की होने की प्रतीक्षा कर रही हूँ और विचार कर रही हँो कि अपनी समस्या को वह स्वयं ही सुलझाने में सफल हो सकेगी।
‘‘उधर एक और समस्या उत्पन्न हो रही है। रामचन्द्र का विवाह शीघ्र ही होने वाला है। सुना है कि राम की बहू बहुत तेज मिजाज है। उसके आने से पूर्व ही यदि ललिता के हाथ पीले कर सकती, तो कदाचित् मैं भी सेठ कुन्दनलाल की भाँति हरिद्वार में जाकर रहने लगती।’
‘‘माँ जी !’ मैंने कहा, ‘क्या इस विषय में हम कुछ नहीं कर सकते?’’
‘‘मैंने तो अपने को भगवान् के भरोसे छोड़ रखा है।’ यह ललिता की माँ ने कहा।
‘‘इस परिस्थिति में,’’ बिहारीलाल ने अपनी माँ से कहा, ‘‘यदि हम थोड़ा-सा यत्न करें, तो कुछ तो किया ही जा सकता है।’’
इसपर रामरखी गहरी सोच में पड़ गई। वह दीर्घ निःश्वास लेकर बोली, ‘‘यदि बात आरम्भ करने का प्रश्न है, तो वह मैं कर सकती हूँ। समस्या बात आरम्भ करने की नहीं है। वह है फकीरचन्द से पूछकर बात करने अथवा पहले बात कर फिर पीछे पूछने की। यदि इस बार बात विफल हुई तो फिर फकीरचन्द को दुबारा नहीं कहा जा सकेगा।’’
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