उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
‘‘वह मैं निपट लूँगा माँ ! यदि कहीं हमारी योजना असफल हुई, तो पूर्ण दोष अपना मान लूँगा। कह दूँगा कि मैंने खाली कागज पर तुम्हारे हस्ताक्षर करवा लिए थे।’’
‘‘तो तुम ललिता को यहाँ लाने के लिए बहुत ही उत्सकु हो?’’
‘‘माँ ! मैं उसको माँ कह चुका हूँ और अब पुत्र बनने से पीछे नहीं हट सकता।’’
‘‘अच्छी बात है। जब तुम कहते हो तो मैं भी अपने भाग का उत्तरदायित्व लेने से पीछे नहीं हट सकती। चिट्ठी भेज दो और मैं स्वयं ही इस विषय में फकीरचन्द से बात करूँगी।’’
इस प्रकार चिट्ठी बम्बई भेज दी गई। बिहारीलाल ने शकुन्तला को कहकर एक चिट्ठी उसकी ओर से भी लिखवा दी और एक सप्ताह के भीतर ही सेठजी का पत्र आया। इसमें उन्होंने लिखा, ‘‘बेटा फकीरचन्द ! मैं पू्र्ण घटना को लिखकर तुमको दुःखी करना नहीं चाहता। केवल इतना ही बताना पर्याप्त होगा कि मनुष्य के कार्य संस्कारों, परिस्थितियों तथा समय के अधीन होते हैं। ये तीनों ही वस्तुएँ बदलने वाली हैं। इससे कुछ अधिक लिख नहीं सकता। मैं भ्रम में फँसा हुआ, तुमको फँसाने का षड्यन्त्र कर बैठा।
‘‘भला हो भगवान् का कि लक्ष्मीधर बक गया। अब मुझे पिछली पूर्ण घटना पर पश्चाताप हो रहा है।
‘‘यदि तुम अब अपने पूर्व निश्चय पर फूल चढ़ाओ, जैसाकि तुम्हारी माँ के पत्र से प्रतीत होता है कि यह हो सकेगा, तो मैं लड़की को लेकर अपने कुछ सम्बन्धियों के साथ वहाँ आ जाऊँगा और ललिता का विवाह तुमसे कर जाऊँगा।
‘‘बेटा ! हम मनुष्य हैं और भूलें करते हैं, परन्तु भगवान्, जो हमारे हृदय में बैठा है, सद्प्रेरणा देकर, हमको राह दिखाता रहता है। पत्र का उत्तर आते ही मैं वहाँ आने का प्रबन्ध करूँगा।’’
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