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उपन्यास >> धरती और धन

धरती और धन

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :195
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7640

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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती।  इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।


पत्र फकीरचन्द को मिला, तो उसको, एक ओर तो माँ पर क्रोध चढ़ आया और दूसरी ओर सेठजी के अपने किये पर पश्चात्ताप करने से विस्मय तथा प्रसन्नता हुई। पत्र को पढ़ते हुए वह कितनी ही देर तक बैठा विचार करता रहा। रात के भोजन के समय उसने माँ से पूछ लिया, ‘‘माँ ! तुमने सेठ करोड़ीमल को कोई पत्र लिखा था?’’

‘‘सेठ को नहीं, पन्नादेवी को लिखा था। उसमें यही लिखा था कि बड़ों के हठ ने तो बच्चों के भीतर दीवार खड़ी कर रखी है। क्यों? कुछ सन्देह आया है वहाँ से?’’

‘‘माँ ! तुमने ठीक नहीं किया। मेरे पूछे बिना तुमने उनसे क्षमा माँग ली प्रतीत होती है। मैं तो कुछ ऐसी घटना की आशा, तबसे ही कर रहा था, जब से ललिता की बहिन यहाँ आई है।’’

‘‘क्षमा की बात तो मैं जानती नहीं। इतना जरूर लिखा था कि यह व्यापार का झगड़ा सम्बन्धों में बाधक नहीं बनना चाहिए।’’

‘‘तो तुम मुझको विवाह करने के लिए कहती हो?’’

‘‘मैं तो पाँच वर्ष से कह रही हूँ?’’

‘‘ललिता से?’’

‘‘मैं उसको आशीर्वाद दे चुकी हूँ फकीर ! क्या मेरा आशीर्वाद निष्फल करना चाहते हो?’’

इससे फकीरचन्द का मुख बन्द कर दिया। उसने भोजन के लिए बैठते हुए कहा, ‘‘तो समधिन से पूछ लो कि वे विवाह के लिए कब आ रहे हैं। साथ ही लिखें कि कितने आदमी उनके साथ आएँगे, जिससे उनके ठहरने और भोजनादि की व्यवस्था की जा सके।’’

‘‘जुग-जुग जियो बेटा ! तुमने मेरा मान रख लिया है। मैं बहुत ही प्रस्नन हूँ। माँ के अन्तःस्थल से निकला आशीर्वाद सदैव तुम्हारी रक्षा करेगा और तुमको सुखी रखेगा।’’

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