उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
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सूसन जब सुन्दरलाल को यह कह कि वह देवगढ़ा में आ जाये, बम्बई से चली आई तो सुन्दरलाल और भी निराशा में डूब गया। निराश व्यक्ति के लिए पथ-भ्रष्ट होना बहुत ही सहज है। सट्टे में उसको फिर कुछ आय हुई थी। परन्तु मदिरापान, जुआ और वेश्यागमन तो सोने के पहाड़ों को भी गला देने की सामर्थ्य रखते हैं। ज्यों-ज्यों उसके पास धन कम होता गया, एक जुआरी की भाँति उसकी रुचि इन व्यसनों में अधिक होती गई।
बम्बई मे आने के पश्चात् सूसन ने एक पत्र उसको लिखा था। उसमें उसने लिखा था, ‘‘डियर लाल ! मैं समझती हूँ कि आपका बम्बई में रहना अति हानिकारक है। आप मद्य पीने लगे हैं, वह भी इतनी, जितनी कि मेरे पिता के घर में, जहाँ यह बिना मूल्य के प्राप्य थी, नहीं पी जाती थी। आप वेश्यागामी हो गये हैं। इसलिए नहीं कि आपको अपनी पत्नी उपलब्ध नहीं। आपको विदित है कि शकुन्तला बम्बई में विद्यमान है और वह आपको कभी इंकार न करती।
इसपर भी आपने गन्दी नाली का पानी पीना स्वीकार किया।
‘‘लाखों रुपये तो यहाँ नहीं है, परन्तु जितना आपके खाने-पीने के लिए चाहिए, उससे बहुत अधिक आपको मिल जायेगा। कहा मना लीजिए। इसी में आपका और मेरा कल्याण है।’’
सुन्दरलाल ने पत्र का उत्तर नही दिया। उत्तर न आने से सूसन ने भी उसका ध्यान छोड़ दिया। वह समझती थी कि सुन्दरलाल अपने पिता की भाँति दिवाला निकालेगा। तब उसका समय आयेगा और वह उसको कीचड़ में से निकालने में सफल हो सकेगी।
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