उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
रमा ने मन-ही-मन प्रसन्न होकर कहा–लेकिन कैसे पूछोगे दादा, लोग कहेंगे न कि तुमसे इन बातों से क्या मतलब?
देवीदीन ने ठट्ठा मारकर कहा–भैया, इससे सहज तो कोई काम ही नहीं। एक जनेऊ गले में डाला और ब्राह्मन बन गये। फिर चाहे हाथ देखो, चाहे कुण्डली बाँचो, चाहे सगुन विचारो, सब कुछ कर सकते हो। बुढ़िया भिक्षा लेकर आवेगी। उसे देखते ही कहूँगा, माता तेरे को पुत्र के परदेश जाने का बड़ा कष्ट है, क्या तेरा कोई पुत्र विदेश गया है? इतना सुनते ही घर-भर के लोग आ जायेंगे। वह भी आवेगी। उसका हाथ देखूँगा। इन बातों में मैं पक्का हूँ भैया, तुम निश्चिन्त रहो। कुछ कमा लाऊँगा, देख लेना। माघ-मेला भी होगा। स्नान करता आऊँगा।
रमा की आँखें मनोल्लास से चमक उठीं। उसका मन मधुर कल्पनाओं के संसार में जा पहुँचा। जालपा उसी वक्त रतन के पास दौड़ी जायेगी। दोनों भाँति-भाँति के प्रश्न करेंगी–क्यों बाबा, वह कहाँ गये हैं? अच्छी तरह हैं न? कब तक घर आवेंगे? कभी बाल-बच्चों की सुध आती है उनको? वहाँ किसी कामिनी के माया-जाल में तो नहीं फँस गये? दोनों शहर का नाम भी पूछेंगी। कहीं दादा ने सरकारी रुपये चुका दिये हों, तो मजा आ जाये। तब एक ही चिन्ता रहेगी।
देवीदीन बोला–तो है न सलाह?
रमा.–कहाँ जायेंगे दादा, कष्ट होगा।
‘माघ का स्नान भी तो करूँगा। कष्ट के बिना कहीं कुछ होता है ! मैं तो कहता हूँ, तुम भी चलो। मैं वहाँ सब रंग-ढंग देख लूँगा। अगर देखना कि मामला टिचन है, तो चैन से घर चले जाना। कोई खटका मालूम हो, तो मेरे साथ ही लौट आना।’
रमा ने हँसकर कहा–कहाँ की बात करते हो दादा ! मैं यों कभी न जाऊँगा। स्टेशन पर उतरते ही कहीं पुलिस का सिपाही पकड़ ले तो बस !
देवीदीन ने गम्भीर होकर कहा–सिपाही क्या पकड़ लेगा, दिल्लगी है ! मुझसे कहो, मैं प्रयागराज के थाने में ले जाकर खड़ा कर दूँ। अगर कोई तिरछी आँखों से भी देख ले तो मूँछ मुड़ा लूँ ! ऐसी बात है भला ! सैकड़ों खूनियों को जानता हूँ जो यहाँ कलकत्ते में रहते हैं। पुलिस के अफसरों के साथ दावतें खाते हैं, पुलिस उन्हें जानती है, फिर भी उनका कुछ नहीं कर सकती ! रुपये में बड़ा बल है भैया !
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