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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


उसने रजिया को टाल तो दिया, पर मन ही मन उसने प्रतिज्ञा कर ली कि वह अवश्य रजिया के लिए एक सुन्दर-सी डाची मोल लेगा। उसी इलाके में जहाँ उसके आय की औसत साल भर के तीन आने रोजाना भी न होती थी, अब आठ-दस आने हो गई, दूर-दूर के गाँव में अब वह मजूरी करता। कटाई के दिनों में दिन-रात काम करता, फसल काटता, दाने निकालता, खलियानों में अनाज भरता, नीरा डाल कर भूसे का कुप बनाता, बिजाई के दिनों हल चलाता, पैलियाँ बनाता, बीज फेंकता। इन दिनों में उसे पाँच आने से लेकर आठ आने रोजाना तक मजदूरी मिल जाती, जब कोई काम न होता तो प्रातः उठकर आठ-आठ कोस की मंजिल मारकर मंडी जा पहुँचता और आठ-दस आने की मजूरी करके ही वापस लौटता। इन दिनों में वह रोज छः आने बचाता आ रहा था, इस नियम में उसने किसी प्रकार भी ढील न होने दी थी, उसे जैसे उन्माद–सा हो गया था, बहन कहती-बाकर अब तो तुम बिलकुल ही बदल गये हो, पहले तो तुमने कभी ऐसी जी तोड़कर मेहनत न की थी।

बाकर हँसता और कहता–तुम चाहती हो मैं आयु भर निठल्ला बैठा रहूँ।

बहन कहती–निठल्ला बैठने को तो मैं नहीं कहती, पर सेहत गवाँकर धन इकट्ठा करने की सलाह भी मैं नहीं दे सकती।

ऐसे अवसर पर सदैव बाकर के सामने उसकी मृत पत्नी का चित्र खिंच जाता, उसकी अन्तिम अभिलाषा उसके कानों में गूँज जाती। वह आँगन में खेलती हुई रजिया पर एक स्नेह-भरी दृष्टि डालता और विषाद से मुसकराकर फिर अपने काम में लग जाता, और आज –डेढ़ वर्ष की कड़ी मशक्कत के बाद, वह अपनी चिरसंचित अभिलाषा को पूरा कर सका था।

उसके एक हाथ में साँडनी की रस्सी थी और नहर के किनारे-किनारे वह चला जा रहा था।

शाम का वक्त था, पश्चिम की ओर डूबते सूरज की किरणें धरती को सोने का अन्तिम दान कर रही थीं। वायु में ठंडक आ गई थी और कहीं दूर खेतों में टिटीहरी ‘टीहूँ’ ‘टीहूँ’ कर रही थी, बाकर के मन में अतीत की सब बातें एक-एक करके आ रही थीं। इधर-उधर कभी कोई किसान अपने ऊँट पर सवार कैसे फुदकता हुआ निकल जाता था और कभी-कभी खेतों से वापिस आने वाले किसानों के लड़के छकड़े में रखे हुए घास–पट्ठे के गट्ठों पर बैठे बैलों को पुचकारते किसी गीत का एक आध बन्द गाते, या छकड़े के पीछे बँधे हुए चुपचाप चले आने वाले ऊँटों की थूथनियों से खेलते चले आते थे।

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