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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


एक दिन पशुपति बड़ी रात गये घर आया और रात-भर नींद में ‘कृष्णा! कृष्णा!’ कहकर बर्राता रहा। प्रभा ने अपने प्रियतम का यह आर्तनाद सुना और सारी रात चुपके-चुपके रोया की…बस रोया की!

प्रातःकाल वह पशुपति के लिए दूध का प्याला लिये खड़ी थी कि वह उसके पैरों पर गिर पड़ा और बोला– प्रभा, मेरी तुमसे एक विनय है, तुम्ही मेरी रक्षा कर सकती हो, नहीं मैं मर जाऊँगा। मैं जानता हूँ कि यह सुनकर तुम्हें बहुत कष्ट होगा, लेकिन मुझ पर दया करो। मैं तुम्हारी इस कृपा को कभी न भूलूँगा। मुझ पर दया करो।

प्रभा काँपने लगी। पशुपति क्या कहना चाहता है, यह उसका दिल साफ़ बता रहा था। फिर भी वह भयभीत होकर पीछे हट गई और दूध का प्याला मेज पर रखकर अपने पीले मुख को काँपते हुए हाथों से छिपा लिया। पशुपति ने फिर भी सब कुछ ही कह डाला। लालसाग्नि अब अंदर न रह सकती थी, उसकी ज्वाला बाहर निकल ही पड़ी। तात्पर्य यह था कि पशुपति ने कृष्णा के साथ विवाह करना निश्चय कर लिया था। वह उसे दूसरे घर में रक्खेगा और प्रभा के यहाँ दो रात और एक रात उसके यहाँ रहेगा।

ये बातें सुनकर प्रभा रोई नहीं, वरन स्तम्भित होकर खड़ी रह गई। उसे ऐसा मालूम हुआ कि उसके गले में कोई चीज़ अटकी हुई है और वह सांस नहीं ले सकती।

पशुपति ने फिर कहा– प्रभा, तुम नहीं जानती कि जितना प्रेम तुमसे मुझे आज है उतना पहले कभी नहीं था। मैं तुमसे अलग नहीं हो सकता। मैं जीवन-पर्यन्त तुम्हें इसी भाँति प्यार करता रहूँगा। पर कृष्णा मुझे मार डालेगी। केवल तुम्हीं मेरी रक्षा कर सकती हो। मुझे उसके हाथ मत छोड़ो, प्रिये!

अभागिनी प्रभा! तुझसे पूछ-पूछ कर तेरी गर्दन पर छुरी चलाई जा रही है! तू गर्दन झुका देगी या आत्मगौरव से सिर उठाकर कहेगी– मैं यह नीच प्रस्ताव नहीं सुन सकती।

प्रभा ने इन दो बातों में एक भी न की। वह अचेत होकर भूमि पर गिर पड़ी। जब होश आया, कहने लगी– बहुत अच्छा, जैसी तुम्हारी इच्छा! लेकिन मुझे छोड़ दो, मैं अपनी माँ के घर जाऊँगी, मेरी शान्ता मुझे दे दो।

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