कहानी संग्रह >> गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
यह कहकर वह रोती हुई वहाँ से शान्ता को लेने चली गई और उसे गोद में लेकर कमरे से बाहर निकली। पशुपति लज्जा और ग्लानि से सिर झुकायें उसके पीछे-पीछे आता रहा और कहता रहा– जैसी तुम्हारी इच्छा हो प्रभा, वह करो, और मैं क्या कहूँ, किंतु मेरी प्यारी प्रभा, वादा करो कि तुम मुझे क्षमा कर दोगी। किन्तु प्रभा ने उसको कुछ जवाब न दिया और बराबर द्वार की ओर चलती रही। तब पशुपति ने आगे बढ़कर उसे पकड़ लिया और उसके मुरझाये हुए पर अश्रु-सिचिंत कपोलों को चूम-चूमकर कहने लगा– प्रिये, मुझे भूल न जाना, तुम्हारी याद मेरे हृदय में सदैव बनी रहेगी। अपनी अँगूठी मुझे देती जाओ, मैं उसे तुम्हारी निशानी समझ कर रक्खूँगा और उसे हृदय से लगाकर इस दाह को शीतल करूँगा। ईश्वर के लिए प्रभा, मुझे छोड़ना मत, मुझसे नाराज न होना…एक सप्ताह के लिए अपनी माता के पास जाकर रहो। फिर मैं तुम्हें जाकर लाऊँगा।
प्रभा ने पशुपति के कर-पाश से अपने को छुड़ा लिया और अपनी लड़की का हाथ पकड़े हुए गाड़ी की ओर चली। उसने पशुपति को न कोई उत्तर दिया और न यह सुना कि वह क्या कर रहा है।
अम्माँ, आप क्यों हँस रही हैं?
‘कुछ तो नहीं बेटी।’
‘वह पीले-पीले पुराने काग़ज़ तुम्हारे हाथ में क्या हैं?’
‘ये उस ऋण के पुर्जे हैं जो वापस नहीं मिला।’
‘ये तो पुराने ख़त मालूम होते हैं?’
‘नहीं बेटी।’
बात यह थी कि प्रभा अपनी चौदह वर्ष की युवती पुत्री के सामने सत्य का पर्दा नहीं खोलना चाहती थी। हाँ, वे काग़ज़ वास्तव में एक ऐसे कर्ज के पुर्जे थे जो वापस नहीं मिला। ये वही पुराने पत्र थे जो आज एक किताब में रक्खे हुए मिले थे और ऐसे फूल की पंखुड़ियों की भाँति दिखाई देते थे जिनका रंग और गंध किताब में रक्खे-रक्खे उड़ गई हो, तथापि वे सुख के दिनों को याद दिला रहे थे और इस कारण प्रभा की दृष्टि में वे बहुमूल्य थे।
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