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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


शान्ता समझ गयी कि अम्मा कोई ऐसा काम कर रही है जिसकी ख़बर मुझे नहीं करना चाहती और इस बात से प्रसन्न होकर कि मेरी दुखी माता आज अपना शोक भूल गई है और जितनी देर तक वह इस आनन्द में मग्न रहे उतना ही अच्छा है, एक बहाने से बाहर चली गई। प्रभा जब कमरे में अकेली रह गई तब उसने पत्रों को फिर पढ़ना शुरू किया।

आह! इन चौदह वर्षो में क्या कुछ नहीं हो गया! इस समय उस विरहणी के हृदय में कितनी ही पूर्व स्मृतियाँ जाग्रत हो गई, जिन्होंने हर्ष और शोक के स्रोत एक साथ ही खोल दिये।

प्रभा के चले जाने के बाद पशुपति ने बहुत चाहा कि कृष्णा से उसका विवाह हो जाय पर वह राजी न हुई। इसी नैराश्य और क्रोध की दशा में पशुपति एक कम्पनी का एजेण्ट होकर योरोप चला गया। तब फिर उसे प्रभा की याद आई। कुछ दिनों तक उसके पास से क्षमा प्रार्थना-पूर्ण पत्र आते रहे, जिनमें वह बहुत जल्द घर आकर प्रभा से मिलने के वादे करता रहा और प्रेम के इस नये प्रवाह में पुरानी कटुताओं को जलमग्न कर देने के आशामय स्वप्न देखता रहा। पति-परायणा प्रभा के संतप्त हृदय में फिर आशा की हरियाली लहराने लगी, मुरझाई हुई आशा-लताएं फिर पल्लवित होने लगी! किन्तु यह भी भाग्य की एक क्रीड़ा ही थी। थोड़े ही दिनों में रसिक पशुपति एक नये प्रेम-जाल में फँस गया और तब से उसके पत्र आने बन्द हो गये। इस वक़्त प्रभा के हाथ में वही पत्र थे जो उसके पति ने योरोप से उस समय भेजे थे जब नैराश्य का घाव हरा था। कितनी चिकनी-चुपडी बातें थी। कैसे-कैसे दिल खुश करने वाले वादे थे! इसके बाद ही मालूम हुआ कि पशुपति ने एक अंग्रेज़ लड़की से विवाह कर लिया है। प्रभा पर वज्र-सा गिर पड़ा– उसके हृदय के टुकड़े हो गये– सारी आशाओं पर पानी फिर गया। उसका निर्बल शरीर इस आघात को सहन न कर सका। उसे ज्वर आने लगा। और किसी को उसके जीवन की आशा न रही। वह स्वयं मृत्यु की अभिलाषिणी थी और मालूम भी होता था कि मौत किसी सर्प की भाँति उसकी देह से लिपट गई है। लेकिन बुलाने से मौत भी नहीं आती। ज्वर शान्त हो गया और प्रभा फिर वही आशाविहीन जीवन व्यतीत करने लगी।

एक दिन प्रभा ने सुना कि पशुपति योरोप से लौट आया है और वह योरोपीय स्त्री उसके साथ नहीं है। बल्कि उसके लौटने के कारण वही स्त्री हुई है। वह औरत बारह साल तक उसकी सहयोगिनी रही पर एक दिन एक अंग्रेज़ युवक के साथ भाग गई। इस भीषण और अत्यन्त कठोर आघात ने पशुपति की कमर तोड़ दी। वह नौकरी छोड़कर घर चला आया। अब उसकी सूरत इतनी बदल गयी थी उसके मित्र लोग उससे बाज़ार में मिलते तो उसे पहचान न सकते थे– मालूम होता था, कोई बूढ़ा कमर झुकाये चला जाता है। उसके बाल तक सफेद हो गये।

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