कहानी संग्रह >> गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
तिरसूल
अंधेरी रात है, मूसलाधार पानी बरस रहा है। खिड़कियों पर पानी के थप्पड़ लग रहे हैं। कमरे की रोशनी खिड़की से बाहर जाती है तो पानी की बड़ी-बड़ी बूंदें तीरों की तरह नोकदार, लम्बी, मोटी, गिरती हुई नज़र आ जाती हैं। इस वक़्त अगर घर में आग भी लग जाय तो शायद मैं बाहर निकलने की हिम्मत न करूं। लेकिन एक दिन जब ऐसी ही अंधेरी भयानक रात के वक़्त मैं मैदान में बन्दूक लिये पहरा दे रहा था। उसे आज तीस साल गुज़र गये। उन दिनों मैं फौज में नौकर था। आह! वह फ़ौजी ज़िन्दगी कितने मज़े से गुज़रती थी। मेरी ज़िन्दगी की सबसे मीठी, सबसे सुहानी यादगारें उसी जमाने से जुड़ी हुई हैं। आज मुझे इस अंधेरी कोठरी में अखबारों के लिए लेख लिखते देखकर कौन समझेगा कि इस नीमज़ान, झुकी हुई कमरवाले खस्ताहाल आदमी में भी कभी हौसला और हिम्मत और जोश का दरिया लहरें मारता था। क्या-क्या दोस्त थे जिनके चेहरों पर हमेशा मुसकराहट नाचती रहती थी। शेरदिल रामसिंह और मीठे गलेवाले देवीदास की याद क्या कभी दिल से मिट सकती है? वह अदन, वह बसरा, वह मिस्त्र; सब आज मेरे लिए सपने हैं। यथार्थ है तो यह तंग कमरा और अख़बार का दफ्तर।
हाँ, ऐसी ही अंधेरी डरावनी सुनसान रात थी। मैं बारक के सामने बरसाती पहने हुए खड़ा मैंग्जीन का पहरा दे रहा था। कंधे पर भरा हुआ राइफल था। बारक में से दो-चार सिपाहियों के गाने की आवाजें आ रही थीं, रह-रहकर जब बिजली चमक जाती थी तो सामने के ऊंचे पहाड और दरख्त और नीचे का हराभरा मैदान इस तरह नज़र आ जाते थे जैसे किसी बच्चे की बड़ी-बड़ी काली भोली पुतलियों में खुशी की झलक नज़र आ जाती है।
धीरे-धीरे बारिश ने तूफ़ानी सूरत अख्तियार की। अंधकार और भी अँधेरा, बादल की गरज और भी डरावनी और बिजली की चमक और भी तेज हो गयी। मालूम होता था प्रकृति अपनी सारी शक्ति से जमीन को तबाह कर देगी।
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