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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


चक्रधर यहाँ से अपने आदमियों को बुला लेने का वादा करके तो चले लेकिन दिल में आगा-पीछा हो रहा था। कुछ समझ में न आता था कि क्या करना चाहिए। इसी सोच में पड़े हुए मनोरमा के यहाँ चले गये।

मनोरमा उन्हें उदास देखकर बोली–आप बहुत चिन्तित-से मालूम होते हैं? घर में तो सब कुशल है?

चक्रधर–हाँ, कोई बात नहीं। लाओ देखूँ, तुमने क्या काम किया है?

मनोरमा–आप मुझसे छिपा रहे हैं। आप जब तक न बताएँगे, मैं कुछ न पढ़ूँगी। आप तो यों कभी मुरझाए न रहते थे।

चक्रधर–क्या करूँ मनोरमा, अपनी दशा देखकर कभी-कभी रोना आ जाता है। सारा देश गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा हुआ है, फिर भी हम अपने भाइयों की गर्दन पर छुरी फेरने से बाज़ नहीं आते। इतनी दुर्दशा पर भी हमारी आँखें नहीं खुलतीं। जिनसे लड़ना चाहिए। उनके तो तलुए चाटते हैं और जिनसे गले मिलना चाहिए, उनकी गर्दन दबाते हैं। और यह सारा जुल्म हमारे पढ़े-लिखे भाई ही कर रहे हैं। जिसे कोई अख़्तियार मिल गया, वह फौरन दूसरों को पीसकर पी जाने की फ़िक्र करने लगता है। विद्या ही से विवेक होता है; पर जब रोगी असाध्य हो जाता है, दवा भी उस पर विष का काम करती है। हमारी शिक्षा ने हमें पशु बना दिया है। राजा साहब की जात से लोगों को कैसी-कैसी आशाएँ थीं; लेकिन अभी गद्दी पर बैठे छः महीने भी नहीं हुए और इन्होंने भी वही पुराना ढंग अख़्तियार कर लिया। प्रजा से डण्डों के ज़ोर से रुपये वसूल किए जा रहे हैं और कोई फ़रियाद नहीं सुनता। सबसे ज़्यादा रोना तो इस बात का है कि दीवान साहब और मेरे पिताजी ही राजा साहब के मंत्री और अत्याचार के मुख्य कारण हैं।

सरल हृदय प्राणी अन्याय की बात सुनकर उत्तेजित हो जाते हैं। मनोरमा ने उद्दंड होकर कहा–आप आसामियों से क्यों नहीं कहते कि किसी को एक कौड़ी भी न दें। कोई देगा ही नहीं, तो ये लोग कैसे ले लेंगे?

चक्रधर को हँसी आ गई। बोले–तुम मेरी जगह होतीं, तो आसामियों को मना कर देतीं?

मनोरमा–अवश्य। खुल्लमखुल्ला कहती, ख़बरदार!  राजा के आदमियों को कोई एक पैसा भी न दे। मैं तो राजा के आदमियों को इतना पिटवाती कि फिर इलाके में जाने का नाम ही न लेते।

चक्रधर ने फिर हँसकर कहा–और दीवान साहब से कहतीं?

मनोरमा–उनसे भी यही कहती कि आप चुपके से घर चले जाइए, नहीं तो अच्छा न होगा। आप मेरे पूज्य पिता हैं, मैं आपकी सेवा करूँगी; लेकिन आपको दूसरों का खून न चूसने दूँगी। ग़रीबों को सताकर अपना घर भर लिया, तो कौन-सा बड़ा तीर मार लिया। वीर तो तब बखानूँ, जब सबलों से ताल ठोकिए। अभी एक गोरा आ जाये, तो घर में दुम दबाकर भागेंगे। उस वक़्त ज़बान भी न खुलेगी। उससे ज़रा आँखें मिलाइए तो देखिए, ठोकर जमाता है या नहीं!  उससे तो बोलने की हिम्मत नहीं, बेचारे दीनों को सताते फिरते हैं। यह तो मरे को मारना हुआ, हुकूमत इसे नहीं कहते। यह चोरी भी नहीं है। यह केवल मुर्दे और गिद्ध का तमाशा है।

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