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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


चक्रधर ये बातें सुनकर पुलकित हो उठे। मुस्कुराकर बोल–अगर दीवान साहब खफ़ा हो जाते?

मनोरमा–तो खफ़ा हो जाते!  किसी के ख़फा होने के डर से सच्ची बात पर पर्दा थोड़ा ही डाला जाता है। अगर आज वह आ गए, तो मैं आज ही ज़िक्र करूँगी।

यह कहते-कहते मनोरमा कुछ चिन्तित-सी हो गई और चक्रधर भी विचार में पड़ गए। दोनों के मन में एक ही भाव उठ रहे थे–इसका फल क्या होगा? वह सोचती थी, कहीं लालाजी ने गुस्से मैं आकर बाबूजी को अलग कर दिया तो? चक्रधर सोच रहे थे, यह शंका मुझे क्यों इतना भयभीत कर रही है! इस विषय पर फिर कुछ बातचीत न हुईं; लेकिन चक्रधर यहाँ से पढ़ाकर चले, तो उनके मन में प्रश्न हो रहा था–क्या अब यहाँ मेरा आना उचित है? आज उन्होंने विवेक के प्रकाश में अपने अंतस्तल को देखा, तो उसमें कितने ही ऐसे भाव छिपे हुए थे, जिन्हें यहाँ न रहना चाहिए था। रोग जब तक कष्ट न देने लगे, हम उसकी परवाह नहीं करते!  बालक की गालियाँ हँसी में उड़ जाती हैं; लेकिन सयाने लड़के की गालियाँ कौन सहेगा?

१४

गद्दी के कई दिन पहले ही से मेहमानों का आना शुरू हो गया और तीन दिन बाक़ी ही थे कि सारा कैम्प भर गया। दीवान साहब ने कैम्प ही में बाज़ार लगवा दिया था, वहीं रसद-पानी का भी इन्तज़ाम था। राजा साहब स्वयं मेहमानों की खातिरदारी करते रहते थे; किन्तु जमघट बहुत बड़ा था। आठों पहर हड़बोंग-सा मचा रहता था।

बड़े-बड़े नरेश आये थे। कोई चुने हुए दरबारियों के साथ, कोई लाव-लश्कर लिए हुए। कहीं ऊदी वर्दियों की बहार थी, तो कहीं केसरिए बाने की। कोई रत्न जड़ित आभूषण पहने, कोई अंग्रेज़ी सूट में लैस; कोई इतना विद्वान कि विद्वानों में शिरोमणि, कोई इतना मूर्ख कि मू्र्ख-मण्डली की शोभा। कोई पाँच घण्टे स्नान करता था और कोई सात घण्टे पूजा। कोई दो बजे रात को सोकर उठता था, कोई दो बजे दिन को। रात-दिन तबले ठनकते रहते थे। कितने महाशय ऐसे भी थे, जिनका दिन अंग्रेज़ी कैम्प का चक्कर लगाने में ही कटता था। दो-चार सज्जन प्रजावादी भी थे। चक्रधर और उनकी टुकड़ी के और लोग इन लोगों का सेवा-सम्मान विशेष रूप से करते थे; किन्तु विद्वान् या मूर्ख, राजसत्ता के स्तम्भ या लोकसत्ता के भक्त, सभी अपने को ईश्वर का अवतार समझते थे, सभी गरूर के नशे में मतवाले, सभी विलासिता में डूबे हुए। एक भी ऐसा नहीं, जिसमें चरित्र-बल हो, सिद्धान्त-प्रेम हो मर्यादा भक्ति हो।

नरेशों की सम्मान-लालसा पग-पग पर अपना जलवा दिखाती थी। वह मेरे आगे क्यों चले, उन्हें मेरे पीछे रहना चाहिए था। उनका पूर्वज हमारे पुरुखाओं का कर-दाता था। बातें करने में, अभिवादन में, भोजन करने के लिए बैठने में, महफ़िल में, पान और इलायची लेने में, यही अनैक्य और द्वेष का भाव प्रकट होता रहता था। राजा विशालसिंह और कर्माचारियों का बहुत-सा समय चिरौरी-विनती करने में कट जाता था। कभी-कभी तो इन महान् पुरुषों को शान्त करने के लिए राजा साहब को हाथ जोड़ना और उनके पैरों पर सिर रखना पड़ता था। दिल में पछताते थे कि व्यर्थ ही यह आडम्बर रचा। भगवान् किसी भाँति कुशल से यह उत्सव समाप्त कर दें, अब कान पकड़े कि ऐसी भूल कभी न होगी!  किसी अनिष्ट की शंका उन्हें हरदम उद्विग्न रखती थी। मेहमानों से तो काँपते रहते थे; पर अपने आदमियों से ज़रा-ज़रा सी बात पर बिगड़ जाते थे, जो मुँह में आता, बक डालते थे।

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