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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


अगर शान्ति थी, तो अंग्रेज़ी कैम्प में। न नौकरों में तकरार थी, न बाज़ार-वालों से जूती-पैजार थी। सबकी चाय का एक समय, डिनर का एक समय विश्राम का एक समय, मनोरंजन का एक समय। सब एक साथ थिएटर देखते, एक साथ हवा खाने जाते। न बाहर गन्दगी थी, न मन में मलिनता। नरेशों के कैम्प में पराधीनता का राज्य था, अंग्रेज़ी कैम्प में स्वाधीनता का। स्वाधीनता सद्गुणों को जगाती है पराधीनता दुर्गुणों को।

उधर रनिवास में भी खूब जमघट था। महिलाओं का रंग-रूप देखकर आँखों में चकाचौंध हो जाती थी। रत्न और कंचन ने उनकी कांति को और भी अलंकृत कर दिया था। कोई पारसी वेश में थी, कोई अंग्रेज़ी वेश में और कोई अपने ठेठ स्वदेशी ठाठ में। युवतियाँ इधर-उधर चहकती फिरतीं, प्रौढ़ाएँ आँखें मटका रही थीं। वासना उम्र के साथ बढ़ती जाती है, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण आँखों के सामने था। अंग्रेज़ी फैशनवालियाँ औरों को गँवारिनें समझती थीं और गँवारिनें उन्हें कुलटा कहती थीं। मज़ा यह था कि सभी महिलाएँ ये बातें अपनी महरियों और लौंडियों से भी कहने में संकोच न करती थीं। ऐसा मालूम होता था कि ईश्वर ने स्त्रियों को निन्दा और परिहास के लिए ही रचा है। मन और तन में कितना अंतर हो सकता है, इसका कुछ अनुमान हो जाता था। मनोरमा को महिलाओं के सेवा-सत्कार का भार सौंपा गया था; किन्तु उसे यह चरित्र देखने में विशेष आनन्द आता था। उसे उनके पास बैठने में घृणा होती थी। हाँ, जब रानी रामप्रिया को बैठे देखती, तो उसके पास जा बैठती। इतने काँच के टुकड़ों में से वहीं एक रत्न नज़र आता था।

मेहमानों के आदर-सत्कार की तो यह धूम थी और वे मज़दूर, जो छाती फाड़-फाड़कर काम कर रहे थे, भूखों मरते थे। कोई उनकी ख़बर तक न लेता था। काम लेने को सब थे, पर भोजन के लिए पूछनेवाला कोई न था। चमार पहर रात रहे घास छीलने जाते, मेहतर पहर रात से सफ़ाई करने लगते, कहार पहर रात से पानी खींचना शुरू करते; मगर कोई उनका पुरसाँहाल न था। चपरासी बात-बात पर उन्हें गालियाँ सुनाते; क्योंकि उन्हें खुद बात-बात पर डाँट पड़ती थी। चपरासी सहते थे; क्योंकि उन्हें दूसरों पर अपना गुस्सा उतारने का मौक़ा मिल जाता था। बेगारों से न सहा जाता था, इसीलिए कि उनकी आँतें जलती थीं। दिन भर धूप में जलते; रात भर क्षुधा की आग में। रानी के समय में बेगार इससे भी ज़्यादा ली जाती थी; लेकिन रानी को स्वयं उन्हें खिलाने-पिलाने का ख़याल रहता था। बेचारे अब उन दिनों को याद कर-कर के रोते थे। क्या सोचते थे, क्या हुआ? असंतोष बढ़ता जाता था। न जाने कब सब-के-सब जान पर खेल जाएँ, हड़ताल कर दें, न जाने कब बारूद की चिनगारी पड़ जाय। दशा ऐसी भयंकर हो गई थी। राजा साहब को नरेशों ही की खातिरदारी से फुरसत न मिलती थी, यह सत्य है; किन्तु राजा के लिए ऐसे बहाने शोभा नहीं देते। उनकी निग़ाह चारों तरफ़ दौड़नी चाहिए। अगर उसमें इतनी योग्यता नहीं, तो उसे राज्य करने का कोई अधिकार नहीं।

संध्या का समय था। चारों तरफ़ चहल-पहल मची हुई थी। तिलक का मुहूर्त निकल आ गया था। हवन की तैयारियाँ हो रही थीं। सिपाहियों को वर्दी पहनकर खड़े हो जाने की आज्ञा दे दी गई थी कि सहसा मज़दूरों के बाड़े-से रोने-चिल्लाने की आवज़ें आने लगीं। किसी कैम्प में घास न थी और ठाकुर हरिसेवक हंटर लिए चमारों को पीट रहे थे। मुंशी वज्रधर की आँखें मारे क्रोध के लाल हो रही थीं। कितना अनर्थ है! सारा दिन गुज़र गया और अभी तक किसी कैम्प में घास नहीं पहुँची। चमारों का यह हौसला! ऐसे बदमाशों को गोली मार देनी चाहिए।

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