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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


राजा–तुम सब पहले बाड़े के द्वार से हट जाओ, फिर जो कुछ कहना है मुझसे कहो। अगर किसी ने बाड़े के बाहर पाँव रखा, तो जान से मारा जायेगा। दंगा किया तो तुम्हारी जान की खैरियत नहीं।

चौधरी–सरकार ने हमको काम करने के लिए बुलाया है कि जान लेने के लिए?

राजा–काम न करोगे, तो जान ली जायेगी।

चौधरी–काम तो आपका करें, खाने किसके घर जायें?

राजा–क्या बेहूदा बातें करता है, चुप रहो। तुम सब-के-सब मुझे बदनाम करना चाहते हो। हमेशा से लात खाते चले आये हो और वही तुम्हें अच्छा लगता है। मैंने तुम्हारे साथ भलमनसी का बर्ताव करना चाहा था; लेकिन मालूम हो गया कि लातों के देवता बातों से नहीं मानते। तुम नीच हो और नीच लातों के बग़ैर सीधा नहीं होता। तुम्हारी यही मर्ज़ी है, तो यही सही।

चौधरी–जब लात खाते थे, तब खाते थे, अब न खाएँगे।

राजा–क्यों? अब कौन सुरखाब के पर लग गए हैं?

चौधरी–वह समय ही लद गया। क्य अब हमारी पीठ पर कोई नहीं कि मार खाते रहें और मुँह न खोलें? अब तो सेवा समिति हमारी पीठ पर है। क्या वह कुछ भी न्याय न कर करेगी? हमारी राय से मेम्बर चुने जाते हैं, क्या कोई हमारी फ़रियाद न सुनेगा?

राजा–अच्छा? तो तुझे सेवा-समितिवालों का घमण्ड है?

चौधरी–हाँ है, वह हमारी रक्षा करती है तो क्यों न उसका घमण्ड करें?

राजा साहब होंठ चबाने लगे–तो यह समितिवालों की कारस्तानी है। चक्रधर मेरे साथ कपट-चाल चल रहे हैं, लाला चक्रधर? जिसका बाप मेरा खुशामद की रोटियाँ खाता है। जिसे मित्र समझता था, वही आस्तीन का साँप निकला। देखता हूँ, वह मेरा क्या कर लेता है। एक रुक्का बड़े साहब के नाम लिख दूँ तो बच्चे के होश उड़ जायें। इन मूर्खों के सिर से यह घमंड निकाल ही देना चाहिए। यह ज़हरीले कीड़े फैल गए तो आफ़त मचा देंगे।

चौधरी तो ये बातें कर रहा था उधर बाड़े में घोर कोलाहल मचा हुआ था। सरकारी आदमियों की सूरत देखकर जिनके प्राण-पखेरू उड़ जाते थे, वे इस समय निःशंक और निर्भय बंदूकों के सामने मरने को तैयार खड़े थे। द्वार से निकलने का रास्ता न पाकर कुछ आदमी उधर से भड़भड़ाकर निकल पड़े, मानो कोई उमड़ी हुई नदी बाँध तोड़कर निकल पड़े। उसी वक़्त एक ओर सशस्त्र पुलिस जवान और दूसरी ओर से चक्रधर, समिति के कई युवकों के साथ आते हुए दिखाई दिए। चक्रधर ने निश्चय कर लिया था कि राजा साहब के आदमियों को उनके हाल पर छोड़ देंगे लेकिन यहाँ की ख़बरें सुन-सुनकर उनके कलेजे पर साँप-सा लोटता जा रहा था। ऐसे नाज़ुक मौके पर खड़े होकर तमाशा देखना उन्हें लज्जा-जनक मालूम होता था!  अब तक तो दूर ही से आदमियों को दिलासा देते रहे; लेकिन आज की ख़बरों ने उन्हें आने के लिए मज़बूर कर दिया।

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