उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
तीसरा–चलो उन्हीं सबको पथें? मुर्गी के अंडे खा-खाकर खूब मोटाए हुए हैं।
चौथा–यही सब तो राजाओं को बिगाड़े हुए हैं। दो शिकार भी मिल गए, तो मेहनत सफल हो जायेगी।
लेकिन कायरों की हिम्मत टूटने लगी थी। लोग चुपके-चुपके दाएँ-बाएँ से सरकने लगे थे। यहाँ प्राण देने से बाजा़र में लूट मचाना कहीं आसान था। देखते-देखते पीछे के सभी आदमी खिसक गए। केवल आगे के लोग खड़े रह गए थे। उन्हें क्या ख़बर थी कि पीछे क्या हो रहा है। वे अंग्रेज़ों के कैम्प की तरफ़ मुड़े और एक ही हल्ले में अंग्रेज़ी कैम्प के फाटक तक आ पहुँचे। अब तो यहाँ भी भगदड़ पड़ी। एक ओर नरेशों के कैम्पों से मोटरें निकल-निकलकर पीछे की ओर से दौड़ती चली आ रही थीं। इधर अंग्रेज़ी कैम्प से मोटरों का निकलना शुरू हुआ। एक क्षण में सारी लेडियाँ ग़ायब हो गईं। मर्दों में भी आधे से ज़्यादा निकल भागे। केवल वही लोग रह गए, जो मोरचे पर खड़े थे और जिनके लिए भागना मौत के मुँह में जाना था; मगर उन सब को हाथों में मार्टिन और मॉजर के यन्त्र थे। इधर ईश्वर की दी हुई लाठियाँ थीं; या ज़मीन से चुने पत्थर। यद्यपि हड़तालियों का दल एक ही हल्ले में फाटक तक पहुँच गया; पर यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते कोई बीस आदमी गिर पड़े। अगर इस वक़्त ४० गज़ के अन्तर पर भी इतने आदमी गिरे होते, तो शायद सबके पैर उखड़ जाते लेकिन यह विश्वास कि अब मैदान मार लिया है, उनके हौसले बढ़े हुए थे। विजय के सम्मुख पहुँचकर कायर भी वीर हो जाते हैं, घर के समीप पहुँचकर थके हुए पथिक के पैरों में भी पर लग जाते हैं।
इन मनुष्यों के मुख पर इस समय हिंसा झलक रही थी। चेहरे विकृत हो गए थे। जिसने इन्हें इस दशा में न देखा हो, यह कल्पना भी नहीं कर सकता कि वही दीनता के पुतले हैं, जिन्हें एक काठ की पुतली भी चाहे जो नाच नचा सकती थी। अंग्रेज़ी योद्धा अभी तक तो मोरचे पर खड़े बन्दूकें छोड़ रहे थे; लेकिन इस भयंकर दल को सामने देखकर उनके औसान जाते रहे। दो-चार तो भागे, दो-तीन मूर्च्छा खाकर गिर पड़े। केवल पाँच फ़ौजी अफ़सर अपनी जगह पर डटे रहे। उन्हें बचने की कोई आशा न थी और इसी निराशा ने उन्हें अदम्य साहस प्रदान कर दिया था। वे जान पर खेले हुए थे! क्षण-क्षण पर बन्दूकें चलाते थे; मानों बन्दूक़ की कलें हों। जो आगे बढ़ता था, उनके अचूक निशाने का शिकार हो जाता था। इधर ढेले और पत्थरों की वर्षा हो रही थी, जो फाटक तक मुश्किल से पहुँचती थी। अब सामने पहुँचकर लोगों ने आगे बढ़कर पत्थर चलाने शुरू किए। यहाँ तक कि अंग्रेज़ चोट खाकर गिर पड़े। एक का सिर फट गया था; दूसरे की बाँह टूट गई थी। केवल तीन आदमी रह गए, और वही इन आदमियों को रोक रखने के लिए काफ़ी थे। लेकिन उनके पास भी कारतूस न रह गए थे। कठिन समस्या थी। प्राण बचने की कोई आशा नहीं। भागने की कल्पना ही से उन्हें घृणा होती थी। जिन मनुष्यों को हमेशा पैरों से ठुकराया किए, जिन्हें कुली कहते और कुत्तों से भी नीच समझते रहे, उनके सामने पीठ दिखाना ऐसा अपमान था, जिसे वे किसी तरह न सह सकते थे। इधर हड़तालियों के हौसले बढ़ते जाते थे। शिकार, अब बेदम होकर गिरना चाहता था। हिंसा के मुँह से लार टपक रही थी।
एक आदमी ने कहा–हाँ बहादुरों, बस एक हल्ले की और कसर है; घुस पड़ो। अब कहाँ जाते हैं।
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