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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


दूसरा बोला–आज जो मारेगा, वह बैकुण्ठ जायेगा। बोला हनुमान जी की जय...।

उसे भी गोली लगी और चक्कर खाकर गिर पड़ा।

इतने में दीवान साहब बन्दूक़ लिए पीछे दौड़ते हुए आ पहुँचे। गुरुसेवक भी उनके साथ थे। दोनों एक दूसरे रास्ते से कैम्प के द्वार पर पहुँच गए थे।

हरिसेवक–तुम मेरे पीछे खड़े हो जाओ और यहीं से निशाना लगाओ।

गुरुसेवक–अभी फायर न कीजिए। मैं ज़रा इन्हें समझा लूँ। समझाने से काम निकल जाये, तो रक्त क्यों बहाया जाये?

हरिसेवक–अब समझाने का मौक़ा नहीं है। अभी दम-के-दम में सब-के-सब अंदर घुस आएँगे, तो प्रलय हो जायेगी।

किन्तु गुरुसेवक के हृदय में दया थी। पिता की बात मानकर वह सामने आ गए और ललकाकर बोले–तुम लोग यहाँ क्यों आ रहे हो? यह न समझो कि तुम कैम्प के द्वार पर पहुँच गए हो। यहाँ आते तुम आधे हो जाओगे।

एक मज़दूर–कोई चिन्ता नहीं। मर-मरकर जीने से एक बार मर जाना अच्छा है। मारो, आगे बढ़ो, क्या हिम्मत छोड़ देते हो?

गुरुसेवक–आगे एक कदम भी रखा और गिरे! यह समझ लो कि तुम्हारे आगे मौत खड़ी है।

मज़दूर–हम आज मरने के लिए कमर बाँधकर...

अंग्रेज़ी कैम्प से फिर गोलियों की बाढ़ आई और कई आदमियों के साथ यह आदमी भी गिर गया, और उसके गिरते ही सारे समूह में खलबली पड़ गई। अभी तक इन लोगों को न मालूम था कि गोलियाँ किधर से आ रही हैं। समझ रहे थे कि इसी कैम्प से आती होंगी। अब शिकारी बढ़ आये थे और साफ़ नज़र आ रहे थे।

एक चमार बोला–साहब लोग गोली चला रहे हैं।

दूसरा–गौरों की फ़ौज है फ़ौज।

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