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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


यह कहकर चक्रधर मज़दूरों की ओर चले–राजा साहब जानते थे कि इनका इशारा पाते ही सारे मज़दूर हवा हो जायेंगे, फिर सशस्त्र सेना भी उन्हें न रोक सकेगी। तिलमिलाकर बन्दूक़ लिये हुए चक्रधर के पीछे दौड़े और ऐसे ज़ोर से उन पर कुन्दा चलाया कि सिर पर लगता तो शायद वहीं ठण्डे हो जाते। मगर कुशल हुई, कुन्दा पीठ में लगा और उसके झोंके से चक्रधर कोई हाथ पर जा गिरे। उनका ज़मीन पर गिरना था कि पाँच हज़ार आदमी बाड़े को तोड़कर सश्स्त्र सिपाहियों को चीरते बाहर निकल आये और नरेशों के कैंप की ओर चले। रास्ते में जो कर्मचारी मिला, उसे पीटा। मालूम होता था, कैम्प में लूट मच गई है। दूकानदार अपनी दूकानें समेटने लगे। दर्शकगण अपनी धोतियाँ सँभालकर भागने लगे। चारों तरफ़ भगदड़ पड़ गई। जितने बेफिक्र, शोहदे, लुच्चे तमाशा देखने आये थे, वे सब उपद्रवकारियों में मिल गए। यहाँ तक कि नरेशों के कैम्प तक पहुँचते-पहुँचते उनकी संख्या दूनी हो गई।

राजा-रईस अपनी वासनाओं के सिवा और किसी के गुलाम नहीं होते। वक़्त की गुलामी भी उन्हें पसन्द नहीं। वे किसी नियम को अपनी स्वेच्छा में बाधा नहीं डालने देते। फिर उनको इसकी क्या परवाह कि सुबह है या शाम। कोई मीठी नींद के मजे लेता था, कोई गाना सुनता था, कोई स्नान-ध्यान में मग्न था और कुछ लोग तिलक मंडप जाने की तैयारियाँ कर रहे थे, कहीं भंग घुटती थी, कहीं कवित्त-चर्चा हो रही थी और कहीं नाच हो रहा था। कोई नाश्ता कर रहा था और कोई लेटा नौकरों से चम्पी करा रहा था। उत्तरदायित्वहीन स्वतन्त्रता अपनी विविध लीलाएँ दिखा रही थी। अगर उपद्रवी इस कैम्प में पहुँच जाते, तो महा अनर्थ हो जाता। न जाने कितने राजवंशों का अन्त हो जाता। किन्तु राजाओं की रक्षा उनका इकबाल करता है!  अंग्रेज़ी कैम्प में १०-१२ आदमी अभी शिकार खेलकर लौटे थे। उन्होंने जो यह हंगामा सुना, तो बाहर निकल आये और जनता पर अन्धा-धुन्ध बन्दूकें छोड़ने लगे। पहले तो उत्तेजित जनता ने बंकूदों की परवाह न की, उसे अपनी संख्या का बल था। लोग सोचते थे, मरते-मरते हममें से इतने आदमी कैम्प में पहुँच जायेंगे कि नरेशों को कहीं भागने की भी जगह न मिलेगी। हम सारे प्रान्त को इन अत्याचारियों से मुक्त कर देंगे!  ये सब भी तो अपनी प्रजा पर ऐसा ही अत्याचार करते होंगे।

जनता उत्तेजित होकर आदर्शवादी हो जाती है।

गोलियों की पहली बाढ़ आयी। कई आदमी गिर गए।

चौधरी–देखो भाई, घबराना नहीं। जो गिरता है, उसे गिरने दो; आज ही तो दिल के हौसले भी निकले हैं। जय हनुमानजी की।

एक मज़दूर–बढ़े आओ, बढ़े आओ, अब मार लिया है। आज ही तो...

उसके मुँह से पूरी बात भी न निकलने पाई थी कि गोलियों की दूसरी बाढ़ आयी और कई आदमियों के साथ दोनों नेताओं का काम तमाम कर गई। एक क्षण के लिए सबके पैर रुक गए। जो जहाँ था, वहीं खड़ा रह गया। समस्या थी कि आगे जायें या पीछे? सहसा एक युवक ने कहा–मारो, रुक क्यों गए? सामने पहुँचकर हिम्मत छोड़ देते हो। बड़े चलो। जय दुर्गामाई की!

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