उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
मुंशी वज्रधर की छाती धक-धक करने लगी। चक्रधर को हाथों से पीछे हटाकर बोले–हुज़ूर की कृपा-दृष्टि ने इसे शोख कर दिया है। अभी तक बड़े आदमियों की सोहबत में बैठने का मौक़ा तो मिला नहीं, बात करने की तमीज़ कहाँ से आए।
लेकिन चक्रधर भी जवान आदमी थे, उस पर सिद्धान्तों के पक्के, आदर्श पर मिटनेवाले, अधिकार और प्रभुत्व के जानी दुश्मन। वह राजा साहब के उद्दंड शब्दों से ज़रा भी भयभीत न हुए। यह उस सिंह की गरज़ थी, जिसके दाँत और पंजे टूट गए हों। यह उस रस्सी की ऐंठन थी, जो जल गई हो। तने हुए सामने आए और बोले–आपको अपने मुख से ये शब्द निकालते हुए शर्म आनी चाहिए थी। अगर सम्पत्ति से इतना पतन हो सकता है, तो मैं कहूँगा कि इससे बुरी चीज़ संसार में कोई नहीं। आपके भाव कितने पवित्र थे! कितने ऊँचे! आप प्रजा पर अपने को अर्पण कर देना चाहता थे। आप कहते थे, मैं प्रजा को अपने पास बे-रोक-टोक आने दूँगा, उसके लिए मेरे द्वार हमेशा खुले रहेंगे। आप कहते थे, मेरे कर्मचारी उनकी ओर टेढ़ी निग़ाह से भी देखेंगे, तो उनकी शामत आ जायेगी। वे सारी बातें क्या आपको भूल गईं? और इतनी जल्दी? अभी तो बहुत दिन नहीं गुज़रे! अब आप कहते हैं, प्रजा मेरे पैरों की धूल है। ईश्वर आपको सबुद्धि दे!
राजा साहब कहाँ तो क्रोध से उन्मत्त हो रहे थे, कहाँ यह लगती हुई बात सुनकर रो पड़े। क्रोध निरुत्तर होकर पानी हो जाता है या यों कहिए कि आँसू अव्यक्त भावों ही का रूप है। ग्लानि थी या पश्चाताप; अपनी दुर्बलता का दुःख था या विवशता का; या इस बात का रंज था कि यह दुष्ट मेरा इतना अपमान कर रहा है और मैं कुछ नहीं कर सकता–इसका निर्णय करना कठिन है।
मगर एक ही क्षण में राजा साहब सचेत हो गए। प्रभुता ने आँसुओं को दबा दिया। अकड़कर बोले, मैं कहता हूँ यहाँ से चले जाओ!
हरिसेवक–आपको शर्म नहीं आती कि किससे ऐसी बातें कर रहे हैं?
वज्रधर–बेटा, क्यों मेरे मुँह पर कालिख लगा रहे हो?
चक्रधर–जब तक आप इन आदमियों को जाने न देंगे, मैं नहीं जा सकता।
राजा–मेरे आदमियों से तुम्हें कोई सरोकार नहीं है। उनमें से अगर एक भी हिला, तो उसकी लाश जमीन पर होगी।
चक्रधर–तो मेरे लिए इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है कि उन्हें यहाँ से हटा ले जाऊँ।
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