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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


राजा–बहुत ठीक कहते हैं। इसमें मुझे तो बिगड़ने की कोई बात नहीं मालूम होती। वास्तव में प्रजा का गुलाम हूँ; बल्कि उसके गुलाम का गुलाम हूँ।

हरिसेवक–हुज़ूर, इन लोगों की बातें कहाँ तक कहूँ। कहते हैं, राजा इतने बड़े महल में रहने का कोई हक नहीं। उसका संसार में कोई काम नहीं।

राजा–बहुत ही ठीक कहते हैं। आखिर मैं पड़े-पड़े खाने के सिवा और क्या करता हूँ।

चक्रधर ने झुँझलाकर कहा–ठाकुर साहब, आप मेरे स्वामी हैं, लेकिन क्षमा कीजिए, आप मेरे साथ बड़ा अन्याय कर रहे हैं। मैंने प्रजा को उनके अधिकार अवश्य समझाए हैं; लेकिन यह कभी नहीं कहा कि राजा को संसार में रहने का कोई हक़ नहीं। क्योंकि मैं जानता हूँ, जिस दिन राजाओं की ज़रूरत न रहेगी, उस दिन उनका अन्त हो जाएगा। देश में उसी की राज्य-व्यवस्था होती है, जिसका अधिकार होता है।

राजा–मैं तो बुरा नहीं मानता, ज़रा भी नहीं। आपने कोई ऐसी बात नहीं कही, जो और लोग न कहते हों। वास्तव में जो राजा के प्रति अपने कर्तव्य का पालन न करे उसका जीना व्यर्थ है।

चक्रधर को मालूम हुआ कि राजा साहब मुझे बना रहे हैं। यह अवसर मज़ाक का न था। हज़ारों आदमी साँस बन्द किए हुए सुन रहे थे कि ये लोग क्या फ़ैसला करते हैं और यहाँ इन लोगों को मज़ाक सूझ रहा है। गरम होकर बोले–अगर आपके ये भाव सच्चे होते, तो प्रजा पर यह विपत्ति ही न आती। राजाओं की यह पुरानी नीति है कि प्रजा का मन मीठी-मीठी बातों से भरें और अपने कर्मचारियों को मनमाने अत्याचार करने दें। वह राजा, जिसके कानों तक प्रजा की पुकार न पहुँचने पाए, आदर्श नहीं कहा जा सकता।

राजा–किसी तरह नहीं। उसे गोली मार देनी चाहिए। जीता चुनवा देना चाहिए। प्रजा का गुलाम है कि दिल्लगी है।

चक्रधर यह व्यंग्य न सह सके। उनकी स्वाभाविक सहन शक्ति ने उनका साथ छोड़ दिया। चेहरा तमतमा उठा। बोले–जिस आदर्श के सामने आपको सर झुकाना चाहिए, उसका मज़ाक उड़ाना आपको शोभा नहीं देता। समाज की यह व्यवस्था अब थोड़े ही दिनों की मेहमान है और वह समय आ रहा है, जब या तो राजा का सेवक होगा या होगा ही नहीं। मैंने कभी यह अनुमान न किया था कि आपके वचन और कर्म में इतनी जल्दी इतना बड़ा भेद हो जाएगा।

क्रोध ने अब अपना यथार्थ रूप धारण किया। राजा साहब अभी तक तो व्यंग्यों से चक्रधर को परास्त करना चाहते थे; लेकिन जब चक्रधर के वार मर्मस्थल पर पड़ने लगे, तो उन्हें भी अपने शस्त्र निकालने पड़े। डपटकर बोले–अच्छा बाबूजी, अब अपनी जुबान बन्द करो। मैं जितनी ही तरह देता जाता हूँ, उतने ही आप सिर चढ़ जाते हैं। मित्रता के नाते जितना सह सकता था, उतना सह चुका। अब नहीं सह सकता। मैं प्रजा का गुलाम नहीं हूँ। प्रजा मेरे पैरों की धूल है। मुझे अधिकार है कि उसके साथ जैसा उचित समझूँ वैसा सलूक करूँ। किसी को हमारे और हमारी प्रजा के बीच में बोलने का हक नहीं है। आप अब कृपा करके यहाँ से चले जाइए और फिर कभी मेरी रियासत में कदम न रखिएगा; वरना शायद आपको पछताना पड़े। जाइए।

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