उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
मनोरमा–आपको मालूम नहीं?
वसुमती–मैं होती कौन हूँ? न सलाह में, न बात में। बेगानों की तरह घर में पड़ी दिन काट रही हूँ? वह बैठी हुई हैं। उनसे पूछो, जानती होंगी।
मनोरमा रोहिणी के कमरे में आयी। वह गाव तकिए लगाए ठस्से से मसनद पर बैठी हुई थी। सामने आईना था। नाइन केश गूँथ रही थी। मनोरमा को देखकर मुस्करायीं। पूछा–कैसे चलीं?
मनोरमा–आपको मालूम है, राजासाहब इस वक़्त कहाँ मिलेंगे? मुझे उनसे कुछ कहना है।
रोहिणी–कहीं बैठे अपने नसीबों को रो रहे होंगे। यह मेरी हाय का फल है! कैसा तमाचा पड़ा है कि याद ही करते होंगे। ईश्वर बड़ा न्यायी है। मैंने तो चिन्ता करनी ही छोड़ दी। ज़िन्दगी रोने के लिए थोड़े ही है। सच पूछो, तो इतना सुख मुझे कभी न था। घर में आग लगे या वज्र गिरे, मेरी बला से!
मनोरमा–मुझे सिर्फ़ इतना बता दीजिए कि वह कहाँ हैं?
रोहिणी–मेरे हृदय में! उसे बाणों से छेद रहे हैं।
मनोरमा निराश होकर यहाँ से भी निकली। वह इस राजभवन में पहले-पहल ही आयी थी। अंदाज़ से दीवानखाने की तरफ़ चली। जब रानियों के यहाँ नहीं तो अवश्य दीवानखाने में होंगे। द्वार पर पहुँचकर वह ज़रा ठिठक गयी। झाँककर अन्दर देखा, राजा साहब कमरे में टहलते थे और मूँछें ऐंठ रहे थे। मनोरमा अंदर चली गयी। पछतायी कि व्यर्थ रानियों से पूछती फिरी।
राजा साहब उसे देखकर चौंक पड़े। कोई दूसरा आदमी होता, तो शायद उस पर झल्ला पड़ते, निकल जाने को कहते; किन्तु मनोरमा के मान-प्रदीप्त सौन्दर्य ने उन्हें परास्त कर दिया। खौलते हुए पानी ने दहकती हुई आग को शान्त कर दिया। उन्होंने पहले उसे एक बार देखा था। तब वह बालिका थी। आज वही बालिका नवयुवती हो गयी थी। यह एक रात भीषण चिन्ता, दारुण वेदना और दुस्सह तापसृष्टि थी। राजा साहब के सम्मुख आने पर भी उसे ज़रा भी भय या संकोच न हुआ। सरोष नेत्रों से ताकती हुई बोली–उसका कण्ठ आवेश से काँप रहा था–महाराज, मैं आपसे यह पूछने आयी हूँ कि क्या प्रभुत्व और पशुता एक ही वस्तु है या उनमें कुछ अन्तर है?
राजा साहब ने विस्मित होकर कहा–मैंने तुम्हारा आशय नहीं समझा, मनोरमा, बात क्या है? तुम्हारी त्योरियाँ चढ़ी हुई हैं। क्या किसी ने कुछ कहा है या मुझसे नाराज़ हो? यह भवें क्यों तनी हुई हैं?
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