उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
राजभवन में सन्नाटा छाया हुआ था। रोहिणी ने तो जन्माष्टमी के दिन से ही राजा साहब से बोलना-चालना छोड़ दिया था। यों पड़ी रहती थी, जैसे कोई चिड़िया पिंजरे में। वसुमती को अपने पूजा-पाठ से फुरसत न थी। अब उसे राम और कृष्ण दोनों ही की पूजा-अर्चना करनी पड़ती थी। केवल रामप्रिया घबराती हुई इधर-उधर दौड़ रही थी। कभी चुपके-चुपके कोपभवन के द्वार तक जाती, कभी खिड़की से झाँकती; पर राजा साहब की त्योरियाँ देखकर उल्टे पाँव लौट आती। डरती थी कि कहीं वह कुछ खा न लें, कहीं भाग न जायें। निर्बल क्रोध ही तो वैराग्य है।
वह इसी चिन्ता में विकल थी कि मनोरमा आकर सामने खड़ी हो गई। उसकी दोनों आँखें बीरबहूटी हो रही थीं, भवें चढ़ी हुईं, मानो किसी गुण्डे ने सती को छोड़ दिया हो।
रामप्रिया ने पूछा–कहाँ थी, मनोरमा?
मनोरमा–ऊपर ही तो थी। राजा साहब कहाँ हैं?
रामप्रिया ने मनोरमा के मुख की ओर तीव्र दृष्टि से देखा। हृदय आँखों में रो रहा था बोली–क्या करोगी पूछकर?
मनोरमा–उनसे कुछ कहना चाहती हूँ।
रामप्रिया–कहीं उनके सामने जाना मत। कोप-भवन में हैं। मैं तो खुद उनके सामने जाते डरती हूँ।
मनोरमा–आप बतला तो दें।
रामप्रिया–नहीं, मैं न बताऊँगी। कौन जानता है, इस वक़्त उनके हृदय पर क्या बीत रही है। खून के घूँट पी रहे होंगे! सुनती हूँ, हमारे गुरुजी ही की यह सारी करामात है। देखने में तो बड़े सज्जन मालूम होते हैं; पर हैं एक नम्बर के छँटे हुए।
मनोरमा तीर की भाँति कमरे से निकलकर वसुमती के पास जा पहुँची। वसुमती अभी स्नान करके आयी थी और पूजा करने जा रही थी मनोरमा को सामने देखकर चौंक पड़ी। मनोरमा ने पूछा–आप जानती हैं, राजा साहब कहाँ हैं?
वसुमती ने रुखाई से कहा–होंगे जहाँ उनकी इच्छा होगी। मैं तो पूछने भी न गयी। जैसे राम राधा से वैसे ही राधा राम से।
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