उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
विनय क्रोध को निगल जाता है। मनोरमा शान्त होकर बोली–केवल दु:ख प्रकट करने से तो अन्याय का घाव नहीं भरता?
राजा–क्या करूँ मनोरमा, अगर मेरे वश की बात होती, तो मैं इसी क्षण जाता और चक्रधर को अपने कन्धे पर बैठाकर लाता; पर अब मेरा कुछ अख़्तियार नहीं है। अगर उनकी जगह मेरा ही पुत्र होता, तो भी कुछ न कर सकता।
मनोरमा–आप मिस्टर जिम से कह सकते हैं?
राजा–हाँ, कह सकता हूँ, पर आशा नहीं कि वह मानें। राजनीतिक अपराधियों के साथ ये लोग ज़रा भी रियायत नहीं करते, उनके विषय में कुछ सुनना नहीं चाहते। हाँ, एक बात हो सकती है; अगर चक्रधरजी यह प्रतिज्ञा कर लें कि अब वह कभी सार्वजनिक कामों में भाग न लेंगे, तो शायद मिस्टर जिम उन्हें छोड़ दें। तुम्हें आशा है कि चक्रधर यह प्रतिज्ञा करेंगे?
मनोरमा ने संदिग्ध भाव से सिर हिलाकर कहा–न; मुझे इसकी आशा नहीं। वह अपनी खुशी से कभी ऐसी प्रतिज्ञा न करेंगे।
राजा–तुम्हारे कहने से न मान जायेंगे?
मनोरमा–मेरे कहने से क्या, वह ईश्वर के कहने से भी न मानेंगे और अगर मानेंगे भी तो उसी क्षण मेरे आदर्श से गिर जाएँगे। मैं यह कभी न चाहूँगी कि वह उन अधिकारों को छोड़ दें, जो उन्हें ईश्वर ने दिये हैं। आज के पहले मुझे उनसे वही स्नेह था, जो किसी को एक सज्जन आदमी से हो सकता है। मेरी भक्ति उन पर न थी। उनकी प्रणवीरता ही ने मुझे उनका भक्त बना दिया है; उनकी निर्भीकता ही ने मेरी श्रद्धा पर विजय पायी है।
राजा ने बड़ी दीनता से पूछा–जब यह जानती हो, तो मुझे क्यों जिम के पास भेजती हो?
मनोरमा–इसलिए कि सच्चे आदमी के साथ सच्चा बर्ताव होना चाहिए। किसी को उसकी सच्चाई का या सज्जनता का दण्ड न मिलना चाहिए। इसी में आपका भी कल्याण है। जब तक चक्रधर के साथ न्याय न होगा, आपके राज्य में शान्ति न होगी। आपके माथे पर कलंक का टीका लगा रहेगा।
राजा–क्या करूँ, मनोरमा। अच्छे सलाहकार न मिलने से मेरी यह दशा हुई। ईश्वर जानता है, मेरे मन में प्रजाहित के लिए कैसे-कैसे हौसले थे। मैं अपनी रियासत में राम-राज्य का युग लाना चाहता था; पर दुर्भाग्य से परिस्थिति कुछ ऐसी होती जाती थी कि मुझे वे सभी काम करने पड़ रहे हैं, जिनसे मुझे घृणा थी। न जाने वह कौन-सी शक्ति है, जो मुझे अपनी आत्मा के विरुद्ध आचरण करने पर मज़बूर कर देती है। मेरे पास कोई ऐसा मन्त्री नहीं है, जो मुझे सच्ची सलाहें दिया करे। मैं हिंसक जन्तुओं से घिरा हुआ हूँ। सभी स्वार्थी हैं, कोई मेरा मित्र नहीं। इतने आदमियों के बीच मैं अकेला, निस्सहाय, मित्रहीन प्राणी हूँ, एक भी ऐसा हाथ नहीं, जो मुझे गिरते देखकर सँभाल ले। मैं अभी मिस्टर जिम के पास जाऊँगा और साफ़-साफ़ कह दूँगा कि मुझे बाबू चक्रधर से कोई शिकायत नहीं है।
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