उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
|
320 पाठक हैं |
राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
मनोरमा के सौन्दर्य ने राजा साहब पर जो जादू का-सा असर डाला था, वही असर उनकी विनय और शालीनता ने मनोरमा पर किया। सारी परिस्थिति उसकी समझ में आ गई। नरम होकर बोली–जब उनके पास जाने से आपको कोई आशा ही नहीं है, तो व्यर्थ क्यों कष्ट उठाइएगा? मैं आपसे यह आग्रह न करूँगी। मैंने आपका इतना समय नष्ट किया, इसके लिए मुझे क्षमा कीजिएगा। मेरी कुछ बातें अगर कटु और अप्रिय लगी हों...
राजा ने बात काटकर कहा–मनोरमा, सुधा-वृष्टि भी किसी को कड़वी और अप्रिय लगती है? मैंने ऐसी मधुर वाणी कभी न सुनी थी। तुमने मुझ पर जो अनुग्रह किया है, उसे कभी न भूलूँगा।
मनोरमा कमरे से चली गयी। विशालसिंह द्वार पर खड़े उसकी ओर ऐसे तृषित नेत्रों से देखते रहे, मानो उसे पी जायेंगे। जब वह आँखों से ओझल हो गई तो वह कुर्सी पर लेट गए। उनके हृदय में एक विचित्र आकांक्षा अंकुरित हो रही थी।
किन्तु वह आकांक्षा क्या थी! मृगतृष्णा! मृगतृष्णा!
१६
संध्या हो गई। ऐसी उमस है कि साँस लेना कठिन है, और जेल की कोठरियो में उमस और भी असह्य हो गई। एक भी खिड़की नहीं, एक भी जँगला नहीं। उस पर मच्छरों का निरन्तर गान कानों के परदे फाड़े डालता है। सब-के-सब दावत खाने से पहले गा-गाकर मस्त हो रहे हैं। एक-आध मरभुक्खे पत्तलों की राह न देखकर कभी-कभी रक्त का स्वाद ले लेते हैं; लेकिन अधिकांश मण्डली उस समय का इन्तज़ार कर रही है, जब निद्रादेवी उनके सामने पत्तल रखकर कहेगी–प्यारे, आओ, जितना खा सको, खाओ; जतना पी सको, पियो। रात तुम्हारी है और भण्डार भरपूर।
यहीं एक कोठरी में चक्रधर को भी स्थान दिया गया है। स्वाधीनता की देवी अपने सच्चे सेवकों को यही पद प्रदान करती है।
वह सोच रहे हैं–यह भीषण उत्पात क्यों हुआ? हमने तो कभी भूलकर भी किसी से यह प्रेरणा नहीं की। फिर लोगों के मन में यह बात कैसे समायी? इस प्रश्न का उन्हें यही उत्तर मिल रहा है कि यह हमारी नीयत का नतीज़ा है। हमारी शान्त शिक्षा की तह में द्वेष छिपा हुआ था। हम भूल गये थे कि संगठित शक्ति आग्रहमय होती है; अत्याचार से उत्तेजित हो जाती है। अगर हमारी नीयत साफ़ होती, तो जनता के मन में कभी राजाओं पर चढ़ दौड़ने का आवेश न होता। लेकिन क्या जनता राजाओं के कैम्प की तरफ़ न जाती, तो पुलिस उन्हें बिना रोकटोक अपने घर जाने देती? कभी नहीं। सवार के लिए घोड़े का अड़ जाना या बिगड़ जाना एक बात है। जो छेड़-छेड़कर लड़ना चाहे, उससे कोई संगठन से फ़ायदा ही क्या? इसीलिए तो उसे सारे उपदेश दिये जाते हैं। कठिन समस्या है। या तो प्रजा को उनके हाल पर छोड़ दूँ, उन पर कितने ही जुल्म हों, उनके निकट न जाऊँ; या ऐसे उपद्रवों के लिए तैयार रहूँ। राज्य पशुबल का प्रत्यक्ष रूप है। वह साधु नहीं है, जिसका बल धर्म है; वह विद्वान् नहीं है, जिसका बल तर्क है। वह सिपाही है, जो डण्डे के ज़ोर से अपना स्वार्थ सिद्ध करता है। इसके सिवा उसके पास कोई दूसरा साधन ही नहीं।
|