उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
यह सोचते-सोचते उन्हें अपना ख़याल आया। मैं तो कोई आन्दोलन नहीं कर रहा था। किसी को भड़का नहीं रहा था। जिन लोगों की प्राण रक्षा के लिए अपनी जान जोखिम में डाली, वही मेरे साथ यह सलूक कर रहे हैं। इतना भी नहीं देख सकते कि जनता पर किसी का असर हो। उनकी इच्छा इसके सिवा और क्या है कि सभी आदमी अपनी-अपनी आँखें बन्द कर रखें, उन्हें अपने आगे-पीछे, दाएँ-बाएँ देखने का हक नहीं। अगर सेवा करना पाप है, तो यह पाप तो मैं उस वक़्त तक करता रहूँगा, जब तक प्राण रहेंगे। जेल की क्या चिन्ता? सेवा करने के लिए सभी जगह मौक़े हैं। जेल में तो और भी ज़्यादा। लालाजी को दु:ख होगा, अम्माँ जी रोएँगी, लेकिन मज़बूरी है। जब बाहर भी ज़ुबान और हाथ-पाँव बाँधे जाएँगे, तो जैसे जेल, वैसे बाहर। हाँ, ज़रा उसका विस्तार अधिक है। मैं किसी तरह प्रतिज्ञा नहीं कर सकता। वह भी जेल ही है।
वह इसी सोच-विचार में पड़े हुए थे कि एकाएक मुंशी वज्रधर कमरे में दाखिल हुए। उनकी देह पर एक पुरानी अचकन थी, जिसका मैल उसके असली रंग को छिपाए हुए था। नीचे एक पतलून था, जो कमरबन्द न होने के कारण खिसककर इतना नीचा हो गया था कि घुटनों के नीचे एक झोल-सा पड़ गया था। संसार में कपड़े से ज़्यादा बेवफ़ा और कोई वस्तु नहीं होती। हमारा घर बचपन से बुढ़ापे तक हर अवस्था से हमारा है। वस्त्र हमारा होते हुए भी हमारा नहीं रहता। आज जो वस्त्र हमारा है, वह कल हमारा न रहेगा। उसे हमारे सुख-दु:ख की ज़रा भी चिन्ता नहीं होती, फ़ौरन बेवफ़ाई कर जाता है। हम ज़रा बीमार हो जायें, किसी स्थान की जलवायु ज़रा हमारे अनुकूल हो जाये कि बस, हमारे प्यारे वस्त्र, जिनके लिए हमने दर्ज़ी की दूकान की खाक छान डाली थी, हमारा साथ छोड़ देते हैं। उन्हें अपना बनाओ, अपने नहीं होते। अगर ज़बरदस्ती गले लगाओ, तो चिल्लाकर कहते हैं, हम तुम्हारे नहीं। वे केवल हमारी पूर्वावस्था के चिह्न होते हैं।
मुंशी वज्रधर की अचकन भी, जो उनकी अल्पकालीन लेकिन ऐतिहासिक तहसीलदारी की यादगार थी; पुकार-पुकारकर कहती थी–मैं अब इनकी नहीं। किन्तु तहसीलदार साहब हुकूमत के ज़ोर से चिपटाए हुए थे। तुम कितनी ही बेवफ़ाई करो, मेरी कितनी ही बदनामी करो, छोड़ने का नहीं। अच्छे दिनों में तो तुमने हमारे साथ चैन किए, इन बुरे दिनों में तुम्हें क्यों छोड़ूँ? यों तो भूत और वर्तमान के संग्राम की मूर्ति बने हुए तहसीलदार साहब चक्रधर से पास जाकर बोले–क्या करते हो बेटा? यहाँ तो बड़ा अँधेरा है। चलो, बाहर इक्का खड़ा है; बैठ लो। इधर ही से साहब के बँगले पर होते चलेंगे। जो कुछ वह कहें, लिख देना। बात ही कौन-सी है? हमें कौन किसी से लड़ाई करनी है। कल ही से दौड़ लगा रहा हूँ। आज दोपहर को जा के सीधा हुआ। पहले बहुत यों-त्यों करता रहा, लेकिन मैंने पिण्ड न छोड़ा। मेम साहब के पास पहुँचकर रोने लगा। इस फ़न में, तुम जानों, उस्ताद हूँ। सरकारी मुलाज़िमत और वह भी तहसीलदारी सब कुछ सिखा देती है। अंग्रेज़ों को तो तुम जानते ही हो, मेमों के ग़ुलाम होते हैं। मेम ने जाकर हज़रत को डाँटा। क्यों तहसीलदार साहब को दिक कर रहे हो? अभी उनके लड़के को छोड़ दो, नहीं तो घर से निकल जाओ। यह डाँट पड़ी, तो हज़रत के होश ठिकाने हुए। बोले–वैल, तहसीलदार साहब, हम आपका बहुत इज़्ज़त करता है। आपको हम नाउम्मेद नहीं करना चाहता, लेकिन जब तक अपना बेटा इस बात का कौल न करे कि वह फिर कभी गोलमाल न करेगा, तब तक हम उसे नहीं छोड़ सकता। हम अभी जेलर को लिखता है कि उससे पूछो राज़ी है? मैंने कहा–हुज़ूर, मैं खुद जाता हूँ और उसे हुज़ूर की ख़िदमत में लाकर हाज़िर करता हूँ। या वहाँ न चलना चाहो, तो यहीं एक हलफ़नामा लिख दो। देर करने से क्या फ़ायदा, तुम्हारी अम्माँ रो-रोकर जान दे रही हैं।
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