उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
चक्रधर ने सिर नीचा करके कहा–अभी तो मैंने निश्चय नहीं किया। सोचकर जवाब दूँगा। आप नाहक इतने हैरान हुए।
वज्रधर–कैसी बातें करते हो, यहाँ नाक कटी जा रही है, घर से निकलना मुश्किल हो गया है और तुम कहते हो, और सोचकर जवाब दूँगा। इसमें सोचने की बात ही क्या है? इस तहसीलदारी की लाज तो रखनी है। की तो थोड़े ही दिन, लेकिन आज तक लोग याद करते हैं और हमेशा याद करेंगे। कोई हाकिम इलाके में आया नहीं कि उससे मिलने दौड़ा। रसद के ढेर लगा देता था। हाकिमों के नौकर चाकर तक खाते-खाते ऊब जाते थे। ज़मीनदारों की तो मेरे नाम से जान निकल जाती थी। जिम साहब ने मेरी तारीफ़ी चिट्ठियाँ पढ़ीं, तो दंग रह गए। इज़्ज़त को तो निभाना ही पड़ेगा। चलो, हलफ़नामा लिख दो। घर में कल से आग नहीं जली।
चक्रधर–मेरी आत्मा किसी तरह अपने पाँव में बेड़ियाँ डालने पर राज़ी नहीं होती।
वज्रधर–मौक़ा देखकर सब कुछ किया जाता है, बेटा! दुनिया में कोई किसी का नहीं होता। यही राजा साहब पहले तुमसे कितनी मोहब्बत से पेश आते थे। अब अपने सिर पर पड़ी, तो कैसे सारी बला तुम्हारे सिर ठेलकर निकल गये। दीवान साहब का लड़का गुरुसेवक पहले जाति के पीछे कैसा लट्ठ लिए फिरता था। कल डिप्टी कलक्टरी में नामज़द हो गया। कहाँ तो हमसे हमदर्दी करता था, कहाँ अब विद्रोहियों के ख़िलाफ़ जलसा करने के लिए दौड़-धूप कर रहा है। जब सारी दुनिया अपना मतलब निकालने की धुन में है, तो तुम्हीं दुनिया की फ़िक्र में क्यों अपने को बरबाद करो? दुनिया जाये जहन्नुम में। हमें अपने काम-से काम है या दुनिया के झगड़ों से?
चक्रधर–अगर और लोग अपने मतलब के बन्दे हो जायें तो स्वार्थ के लिए अपने सिद्धान्तों से मुँह मोड़ बैठे तो कोई वज़ह नहीं कि मैं भी उन्हीं की नक़ल करूँ। मैं ऐसे लोगों को अपना आदर्श नहीं बना सकता है। मेरे आदर्श इनसे बहुत ऊँचे हैं।
वज्रधर–बस, तुम्हारी इसी ज़िद पर मुझे गुस्सा आता है। मैंने भी अपनी जवानी में इस तरह के खिलवाड़ किए हैं, और उन लोगों को कुछ-कुछ जानता हूँ, जो अपने को जाति के सेवक कहते हैं। बस, मुँह न खुलवाओ। सब अपने-अपने मतलब के बन्दे हैं, दुनिया को लूटने के लिए यह सारा स्वाँग फैला रखा है। हाँ, तुम्हारे जैसे दूसरे चार उल्लू भले ही फँस जाते हैं, जो अपने को तबाह कर डालते हैं। मैं तो सीधी-सी बात जानता हूँ–जो अपने घरवालों की सेवा न कर सका, वह जाति की सेवा कभी कर ही नहीं सकता, घर सेवा की सीढ़ी का पहला डण्डा है। इसे छोड़कर तुम ऊपर नहीं जा सकते।
चक्रधर जब अब भी प्रतिज्ञा-पत्र पर हस्ताक्षर करने पर राज़ी न हुए, तो मुंशीजी निराश होकर बोले–अच्छा बेटा लो, अब कुछ न कहेंगे। जो तुम्हारी खुशी हो, वह करो। मैं जानता था कि तुम जन्म के ज़िद्दी हो, मेरी एक न सुनोगे, इसीलिए आता ही न था; लेकिन तुम्हारी माता ने मुझे कुरेदकर भेजा। कह दूँगा, नहीं आता। सब कुछ करके हार गया, सब्र करके बैठो; उसे अपनी बात और अपनी शान माँ-बाप से प्यारी है। जितना रोना हो, रो लो।
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