उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
वसुमती–यही तो रोना है कि तुम देखकर भी नहीं देखते, समझकर भी नहीं समझते। जहाँ उसने मुस्कुराकर, आँखें मटकाकर बातें कीं, मस्त हो गए। लल्लों-चप्पो किया करते हो। थरथर काँपते रहते हो कि कहीं रानी नाराज़ न हो जाये। आदमी मे सब ऐब हों, किन्तु मेहर-बस न हो। ऐसी कोई बड़ी सुन्दर भी तो नहीं है...।
रामप्रिया–एक समय सखि सुअर सुन्दर! जवानी में कौन नहीं सुन्दर होता?
वसुमती–उसके माथे से तो तुम्हारे तलुवे अच्छे। सात जन्म ले, तो भी तुम्हारे गर्द को न पहुँचे।
विशालसिंह–मैं मेहर-बस हूँ?
वसुमती–और क्या हो?
विशालसिंह–मैं उसे ऐसी-ऐसी बातें कहता हूँ कि वह भी याद करती होगी। घंटों रुलाता हूँ।
वसुमती–क्या जाने, यहाँ तो जब देखती हूँ, मुस्कुराते देखती हूँ। कभी आँखों में आँसू न देखा।
रामप्रिया–कड़ी बात भी हँसकर कहीं जाये, तो मीठी हो जाती है।
विशालसिंह–हँसकर नहीं कहता। बहुत डाँटता हूँ, फटकारता हूँ। लौंडा नहीं हूँ कि सूरत पर लट्टू हो जाऊँ।
वसुमती–डाँटते होंगे मगर प्रेम के साथ। ढलती उम्र में सभी मर्द तुम्हारे ही जैसे हो जाते हैं। कोई नई बात नहीं है। मैं तुमसे लाख रूठी रहूँ लेकिन तुम्हारा मुँह ज़रा भी गिरा देखा और जान निकल गई। सारा क्रोध हवा हो जाता है। वहाँ जब तक जाकर पैर न सहलाओं तलुओं में आँखें न मलो, देवीजी सीधी ही नहीं होतीं। कभी-कभी तुम्हारी लम्पटता पर मुझे हँसी आती है। आदमी कड़े दम होना चाहिए। जिसका अन्याय देखे, उसे डाँट दे, बुरी तरह डाँट दे, खून पी लेने पर उतारू हो जाये। ऐसे ही पुरुषों से स्त्रियाँ प्रेम करती हैं। भय बिना प्रीति नहीं होती। आदमी ने स्त्री की पूजा की कि वह उनकी आँखों से गिरा। जैसे घोड़ा पैदल और सवार पहचानता है, उसी तरह औरत भी भड़ुए और मर्द को पहचानती है। जिसने सच्चा आसन ज़माया और लगाम कड़ी रखी, उसी की जय। जिसने रास ढीली कर दी, उसकी कुशल नहीं।
रामप्रिया मुँह फेर मुस्कुराती और बोली–बहन, तुम सब गुर बताए देती हो, किसके माथे जाएगी?
वसुमती–हम लोगों की लगाम कब ढीली थी?
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