उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
रामप्रिया–जिसकी लगाम कभी कड़ी न थी, वह आज लगभग तानने से थोड़े ही काबू में आयी जाती है, और भी दुलत्तियाँ झाड़ने लगेगी।
विशालसिंह–मैंने तो अपनी जान में कभी लगाम ढीली नहीं की। आज ही देखा, कैसी फटकार बतायी।
वसुमती–क्या कहना है, ज़रा मूँछे खड़ी कर लो, लाओ, पगिया मैं सँवार दूँ। यह नहीं कही कहते कि उसने ऐसी-ऐसी चोटें कीं कि भागते ही बनी!
सहसा किसी के पैरों की आहट पाकर वसुमती ने द्वार की ओर देखा। रोहिणी रसोई के द्वार से दबे पाँव चली जा रही थी। मुँह का रंग उड़ गया। दाँतों से होंठ दबाकर बोली–छिपी खड़ी थी। मैंने साफ़ देखा। अब घर में रहना मुश्किल है। देखो, क्या रंग लाती है।
विशालसिंह ने पीछे की ओर संशक नेत्रों से देखकर कहा–बड़ा ग़ज़ब हुआ। चुड़ैल सब सुन गई होगी। मुझे ज़रा भी आहट न मिली।
वसुमती–ऊँह, रानी रूठेंगी, अपना सुहाग लेंगी। कोई कहाँ तक डरे? आदमियों को बुलाओ, यह, सामान यहाँ से ले जायें।
भादों की अँधेरी रात थी। हाथ-को-हाथ न सूझता था। मालूम होता था, पृथ्वी पाताल में चली गयी है या किसी विराट जन्तु ने उसे निगल लिया है। मोमबत्तियों का प्रकाश तिमिर सागर में पाँव रखते काँपता था। विशालसिंह भोग के पदार्थ थालियों में भरवा-भरवाकर बाहर रखवाने में लगे हुए थे। कोई केले छील रहा था, कोई खीरे काटता था, कोई दोनों में प्रसाद सजा रहा था। एकाएक रोहिणी एक चादर ओढ़े हुए घर से निकली और बाहर की ओर चली। विशालसिंह दहलीज़ के द्वार पर खड़े थे। इस अंधेरी रात में उसे यों निश्शंक भाव से निकलते देखकर उनका रक्त खौलने लगा। ज़रा भी न पूछा, कहाँ जाती हो, क्या बात है? मूर्ति की भाँति खड़े रहे। दिल ने कहा–जिसने इतनी बेहयाई की, उससे और क्या आशा की जा सकती है? वह जहाँ जाती हो, जाए; जो जी में आये, करे। जब उसने मेरा सिर ही नीचा कर दिया, तो मुझे उसकी क्या परवाह? बेहया, निर्लज्ज तो है ही, कुछ पूछूँ और गालियाँ देने लगे, तो मुँह में और भी कालिख लग जाए। अब उसको मेरी परवाह नहीं, तो मैं क्यों उसके पीछे दौड़ूँ? और लोग अपने-अपने काम में लगे हुए थे। रोहिणी पर किसी की निग़ाहें न पड़ीं।
इतने में चक्रधर उनसे कुछ पूछने आये, तो देखा कि महरी उनके सामने खड़ी है और क्रोध से आँखें लाल किए कह रहे हैं–अगर वह मेरी लौंडी नहीं है, तो मैं भी उसका गुलाम नहीं हूँ। अगर वह स्त्री होकर इतना आपे से बाहर हो सकती है, तो मैं पुरुष होकर उसके पैरों पर सिर न रखूँगा। इच्छा हो, जाये, मैंने तिलांजलि दे दी। अब इस घर में कदम न रखने दूँगा। (चक्रधर को देखकर) आपने भी तो उसे देखा होगा?
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