उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
चक्रधर–किसे? मैं तो केले छील रहा था। कौन गया है?
विशालसिंह–मेरी छोटी पत्नीजी रूठकर बाहर चली गयी हैं। आपसे घर का वास्ता है। आज औरतों में किसी बात पर तकरार हो गई। अब तक तो मुँह फुलाए पड़ी रहीं, अब यह सनक सवार हुई। मेरा धर्म नहीं है कि मैं उसे मनाने जाऊँ। आप धक्के खायेगी। उसके सिर पर कुबुद्धि सवार है।
चक्रधर–किधर गयी हैं महरी?
महरी–क्या जानूँ, बाबूजी? मैं तो बर्तन माँज रही थी। सामने ही गयी होंगी।
चक्रधर ने लपककर लालटेन उठा ली और बाहर निकलकर दाएँ-बाएँ निगाहें दौड़ाते, तेजी से कदम बढ़ाते हुए चले। कोई दो सौ कदम गये होंगे कि रोहिणी एक वृक्ष के नीचे खड़ी दिखलाई दी। ऐसा मालूम होता था कि वह छिपने के लिए कोई जगह तलाश कर रही है। चक्रधर उसे देखते ही लपककर समीप जा पहुँचे और कुछ कहना ही चाहते थे कि रोहिणी खुद बोली–क्या मुझे पकड़ने आये हो? अपना भला चाहते हो तो लौट जाओ, नहीं तो अच्छा न होगा। मैं उन पापियों का मुँह न देखूँगी।
चक्रधर–आप इस अँधेरे में कहाँ जायेंगी? हाथ को हाथ सूझता नहीं।
रोहिणी–अँधेरे में डार उसे लगता है, जिसका कोई अवलम्ब हो। जिसका संसार में कोई नहीं, उसे किसका भय? गला काटनेवाले अपने होते हैं, पराए गला नहीं काटते। जाकर कह देना, अब आराम से टाँगें फैलाकर सोएँ, अब तो काँटा निकल गया।
च्रकधर–आप कुँवर साहब के साथ बड़ा अन्याय कर रही हैं। बेचारे लज्जा और शोक से खड़े रो रहे हैं।
रोहिणी–क्यों बाते बनाते हो? वह रोएँगे, और मेरे लिए? मैं जिस दिन मर जाऊँगी, उस दिन घी के चिराग़ जलेंगे। संसार में ऐसे अभागे प्राणी भी होते हैं। अपने माँ-बाप को क्या कहूँ? ईश्वर उन्हें नरक में भी चैन न दे। सोचे थे, बेटी रानी हो जायेगी, तो हम राज करेंगे। यहाँ जिस दिन डोली से उतरी, उसी दिन से सिर पर विपत्ति सवार हुई। पुरुष रोगी हो, बूढ़ा हो, दरिद्र हो, पर नीच न हो। ऐसा नीच और निर्दयी आदमी संसार में न होगा। नीचों के साथ नीच बनना ही पड़ता है।
चक्रधर–आपके यहाँ खड़े होने से कुँवर साहब का कितना अपमान हो रहा है, इसकी आपको ज़रा भी फ़िक्र नहीं?
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