उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
रोहिणी–तुम्हीं ने तो मुझे रोक रक्खा है।
चक्रधर–आखिर आप कहाँ जा रही हैं?
रोहिणी–तुम पूछनेवाले कौन होते हो? मेरा जहाँ जी चाहेगा, जाऊँगी। उनके पाँव में मेंहदी रची हुई थी। उन्होंने मुझे घर से निकलते भी देखा था। क्या इसका मतलब यह नहीं है कि अच्छा हुआ, सिर से बला टली। दुत्कार सहकर जीने से मर जाना अच्छा है।
चक्रधर–आपको मेरे साथ चलना होगा।
रोहिणी–तुम्हें यह कहने का क्या अधिकार है?
चक्रधर–जो अधिकार सचेत को अचेत पर, सजान को अंजान पर होता है। वही अधिकार मुझे आपके ऊपर है। अन्धे को कुएँ में गिरने से बचाना हर एक प्राणी का धर्म है।
रोहिणी–मैं न अचेत हूँ, न अंधी। स्त्री होने ही से बावली नहीं हो गई हूँ। जिस घर में मेरा पहनना-ओढ़ना, हँसना-बोलना देख-देखकर दूसरों की छीती फटती है, जहाँ कोई अपनी बात तक नहीं पूछता, जहाँ तरह-तरह के आक्षेप लगाए जाते हैं। उस पर मैं कदम न रखूँगी।
यह कहकर रोहिणी आगे बढ़ी कि चक्रधर ने सामने खड़े होकर कहा–आप आगे नहीं जा सकतीं।
रोहिणी–जबरदस्ती रोकोगो?
चक्रधर–हाँ, जबरदस्ती रोकूँगा।
रोहिणी–सामने से हट जाओ।
चक्रधर–मैं आपको कदम भी आगे न रखने दूँगा। सोचिए, आप अपनी अन्य बहनों को किस कुमार्ग पर ले जा रही हैं? जब वे देखेंगी कि बड़े-बड़े घरों की स्त्रियाँ भी रूठकर घर से निकल खड़ी होती हैं, तो उन्हें भी ज़रा-ज़रा सी बात पर ऐसा ही साहस होगा या नहीं? नीति के विरुद्घ कोई काम करने का फल अपने ही तक नहीं रहता, दूसरों पर उसका और भी बुरा असर पड़ता है।
रोहिणी–मैं चुपके से चली जाती थी, तुम्हीं तो ढिंढोरा पीट रहे हो।
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