उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
चक्रधर–जिस तरह रण से भागते हुए सिपाही को देखकर लोगों को उससे घृणा होती है–यहाँ तक कि उसका वध कर डालना भी पाप नहीं समझा जाता, उसी तरह कुल में कलंक लगानेवाली स्त्रियों से भी सबको घृणा हो जाती है और कोई उनकी सूरत तक नहीं देखना चाहता। हम चाहते हैं कि सिपाही गोली और आग के सामने अटल खड़ा रहे। उसी तरह हम यह भी चाहते हैं कि स्त्री सब झेलकर अपनी मर्यादा का पालन करती रहे! हमारा मुँह हमारी देवियों से उज्जवल है और जिस दिन हमारी देवियाँ इस भाँति मर्यादा की हत्या करने लगेंगी, उसी दिन हमारा सर्वनाश हो जायेगा।
रोहिणी रुँधे हुए कण्ठ से बोली–तो क्या चाहते हो कि मैं फिर उसी आग में जलूँ?
चक्रधर–हाँ, यही चाहता हूँ। रणक्षेत्र में फलों की वर्षा नहीं होती। मर्यादा की रक्षा करना उससे कहीं कठिन है।
रोहिणी–लोग हँसेंगे कि घर से निकली तो थी बड़े दिमाग़ से, आखिर झख मारकर लौट आयी।
चक्रधर–ऐसा वही कहेंगे, जो नीच और दुर्जन हैं। समझदार लोग तो आपकी सराहना ही करेंगे।
रोहिणी ने कई मिनट तक आगा-पीछा करने के बाद कहा–अच्छा चलिए आप भी क्या कहेंगे। कोई बुरा कहे या भला। हाँ, कुँवर साहब को इतना ज़रूर समझा दीजिएगा कि जिन महारानी को आज वह घर की लक्ष्मी समझे हुए हैं, वह वह दिन उनको बड़ा धोखा देगी। मैं कितनी ही आपे से बाहर हो जाऊँ पर अपने ही प्राण दूँगी। वह बिगड़ेगी तो प्राण लेकर छोड़ेगी। आप किसी मौक़े से ज़रूर समझा दीजिएगा।
यह कहकर रोहिणी घर की ओर लौट पड़ी, लेकिन चक्रधर का उसके ऊपर कहाँ तक असर पड़ा और कहाँ तक स्वयं अपनी सहज बुद्धि का, इसका अनुमान कौन कर सकता है? वह लौटते वक़्त लज्जा से सिर नहीं गड़ाए हुए थी। गर्व से उसकी गर्दन उठी हुई थी। उसने अपनी टेक को मर्यादा की वेदी पर बलिदान कर दिया था, पर इसके साथ ही उन व्यंग्य-वाक्यों की रचना भी कर ली थी, जिससे वह कुँवर साहब का स्वागत करना चाहती थी।
जब दोनों आदमी घर पहुँचे, तो विशालसिंह अभी तक वहीं मूर्तिवत् खड़े थे, महरी भी खड़ी थी। भक्तजन अपना-अपना काम छोड़कर लालटेन की ओर ताक रहे थे। सन्नाटा छाया हुआ था।
रोहिणी ने दहलीज़ में कदम रखा, मगर ठाकुर साहब ने उसकी ओर आँख उठाकर भी न देखा। जब वह अन्दर चली गयी, तो उन्होने चक्रधर का हाथ पकड़ लिया और बोले–मैं तो समझता था, किसी तरह न आएगी, मगर आप खींच ही लाए। क्या बहुत बिगड़ती थी?
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