उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
रोहिणी ने आग्नेय नेत्रों से राजा साहब की ओर देखा, मानों वह उसकी ज्वाला से उन्हें भस्म कर देगी, मानों उसके शरों से उन्हें बेध डालेगी, और लपककर पानदान को ठुकराती, लोटे का पानी गिराती, वहां से चली गयी।
राजा साहब बहुत देर तक समझाया किये, पर मनोरमा ने एक न मानी। उसे शंका हुई कि ये भाव केवल रोहिणी के नहीं है, यहां लोगों के मन में यही भाव होंगे। सन्देह और लांछन का निवारण यहां सबके सन्मुख रहने से ही हो सकता था और यही उसके संकल्प का कारण था। अन्त में राजा साहब ने हताश होकर कहा– तो फिर मैं भी काशी छोड़ देता हूं। मुझसे अकेले वहां एक दिन भी न रहा जाएगा।
एकाएक मुंशी वज्रधर लाठी टेकते आते दिखायी दिये। चेहरा उतरा हुआ था, पाजामें का इजारबन्द नीचे लटकता हुआ। आंगन में खड़े होकर बोले-रानीजी, आप कहां हैं? जरा कृपा करके यहां आइएगा, या हुक्म हो, तो मैं ही आऊं।
राजा साहब ने चिढ़कर कहा– क्या है, यहीं चले आइये। आपको इस वक्त आने की क्या जरूरत थी। सब लोग यही चले आये, कोई वहां भी तो चाहिए।
मुंशीजी कमरे में आकर बड़े दीन भाव से बोले-क्या करूं, घर से तबाह हुआ जा रहा हूँ। हुजूर से न रोऊं, तो किससे रोऊं! लल्लू न जाने क्या करने पर तुला है।
मनोरमा ने संशक होकर पूछा-क्या बात है, मुंशीजी? अभी तो आज बाबूजी वहाँ मेरे पास आये थे, कोई भी नई बात नहीं कही।
मुंशी– वह अपनी बात किसी से कहता है कि आपसे कहेगा। मुझे भी कभी कुछ नहीं कहा, लेकिन आज प्रयाग जाने को तैयार बैठा हुआ है, बहू को भी साथ लिये जाता है।
मनोरमा– आपने पूछा नहीं कि क्यों जा रहे हो। जरूर उन्हें किसी बात से रंज पहुंचा होगा नहीं तो बहू को लेकर न जाते। घर में किसी ने ताना तो नहीं मारा?
मुंशी– इल्म की कसम खाकर कहता हूं, जो किसी ने चूं तक की हो। ताना उसे दिया जाता है, जो टर्राये। वह तो सेवा और शील की देवी है; उसे कौन ताना दे सकता है? हां, इतना जरूर है कि हम दोनों आदमी उसका छुआ नहीं खाते?
मनोरमा ने सिर हिलाकर-अच्छा, यह बात है! भला, बाबूजी यह कब बर्दाश्त करने लगे। मैं अहल्या की जगह होती, तो उस घर में एक क्षण भी न रहती। वह न जाने कैसे इतने दिन तक रह गयी।
मुंशी– आप जरा चलकर समझा दें। मुझ पर इतनी दया करें। सनातन से जिन बातों को मानते आये हैं, वे अब छोड़ी नहीं जातीं।
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