उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘अच्छी बात है। मैं आपके पिताजी को धन्यवाद का पत्र लिख दूँगा और जब वे नैनीताल से लौट आयेंगे तो कोठी में चला आऊँगा।’’
‘‘और तब तक कहाँ रहोगे?’’
‘‘अभी होटल में ठहरा हूँ। कुछ काल के लिये वही रह जाऊँगा।’’
‘‘वहाँ अधिक आराम मिलेगा क्या?’’
‘‘होटल में भला क्या आराम मिल सकता है? मैं तो आपकी सुविधा की बात पर विचार कर रहा हूँ।’’
‘‘मुझको तो आपके आज ही, यहाँ आ जाने से आराम मिलेगा। मेरा कहा मानिये, आज सायंकाल तक चले आइये।’’
इन्द्रनारायण गम्भीर विचार में पड़ गया। उसने कहा, ‘‘कल प्रातः-काल यहाँ चला आऊँगा।’’
‘‘कितने बजे आयेंगे?’’
‘‘दस बजे तक। कल कुछ और काम नहीं है। दस बजे तक का होटल में किराया दे रखा है।’’
‘‘देखिये। भोजन यहाँ तैयार रहेगा।’’
‘‘कौन बनाता है?’’
‘‘जब तक माताजी आदि नहीं आतीं, तब तक मैं ही बनाया करूँगी।’’
‘‘यह तो ‘डबल’ कष्ट हो जायेगा।’’
‘‘देखिये, आ जाइयेगा।’’
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