उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
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इन्द्रनारायण जब वापस चला गया तो शिवदत्त ने अपनी पत्नी से पूछा, ‘‘मुझसे छिपाकर बहुत रुपया जमा कर रखा प्रतीत होता है?’’
‘‘बहुत तो नहीं, हाँ कुछ अवश्य है। पाँच सौ तो विष्णु ही चुराकर ले गया है।’’
‘‘वाह! पाँच सौ तो इन्द्र को ऐसे दे दिया है, जैसे हराम की कमाई हो। सब निकालो, और कितना रखा हुआ है तुमने?’’
‘‘वह पाँच सौ मैंने नहीं दिया। वह तो उर्मिला ने दिया है और महादेव देकर आया है।’’
‘‘ओह! महादेव!’’ शिवदत्त ने क्रोध में आवाज दे दी। महादेव अपने कमरे से निकलकर बैठक में आ गया और बोला, ‘‘क्या बात है पिताजी?’’
‘‘तुमने पाँच सौ रुपया इन्द्र को दिया है?’’
‘‘जी।’’
महादेव तो उस दिन प्रातःकाल ही समझ गया था कि रुपया न तो पिताजी ने दिया है, न ही माताजी ने। माँ के दो सौ रुपये देने आने पर उसको सन्देह हो गया था। माँ के जाने के पश्चात् जब उसने पत्नी से पूछा तो वह हँस पड़ी थी। हँसकर उसने कह दिया था–‘‘किसी ने भी भेजा हो, रुपया उसको मिलना चाहिये था, सो मिल गया।’’
‘‘क्यों मिलना चाहिये था?’’
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