उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘इसलिए कि वह आपका भानजा है। गरीब बहन की भाई सहायता नहीं करेगा तो कौन करेगा?’’
‘‘उनकी सामर्थ्य नहीं तो लड़के को पढ़ाना नहीं चाहिये।’’
‘‘वाह! आप तो बहुत समझ-बूझ की बातें करने लगे हैं! देखिये जी, आपने यह रुपया मुझको खर्च करने के लिये दिया था अथवा जमा करने के लिये?’’
‘‘खर्च करने के लिये, परन्तु अपने पर। यदि तुमने इससे भूषण, वस्त्र आदि श्रृंगार का सामान खरीद लिया होता तो मैं उसका सदुपयोग मानता।’’
‘‘मैंने उसका सदुपयोग ही क्या है। इससे मेरा सौन्दर्य दुगुना हो गया है।’’
‘‘मुझे तो दिखाई नहीं देता।’’
‘‘आपको दिखाने के लिये यह सौन्दर्य नहीं। यह तो आत्मतुष्टि के लिये है। देखिये, यह तो व्यय हो गया। यदि आपके पास मुझको देने के लिये और न हों तो आगे से मत दीजियेगा। परन्तु जो मुझको मिल गया उसे अपनी इच्छा से व्यय करूँगी। भला यह कहाँ का नियम है कि मुझ को दिये धन पर भी आपकी आज्ञा चले।’’
महादेव जब से क्लब जाने लगा था, उर्मिला उससे अधिक-से-अधिक स्वतन्त्र होती जाती थी। वह दान-दक्षिणा भी देती थी और इन्द्र से स्नेह रखने के कारण उसकी सहायता करती थी। महादेव उर्मिला को एक सौ रुपये प्रति माह पॉकेट-खर्च के रूप में देता था। साथ ही वह पचास रुपये माँ को अपने तथा उर्मिला के भोजन के लिये देता था। शेष वेतन वह अपने पर खर्च कर लिया करता था। उर्मिला ने बहुत ही सरल और सादा जीवन व्यतीत करना आरम्भ कर दिया था। उसके पास पचास-साठ रुपये प्रतिमास बच जाया करते थे। यह वह दान आदि में व्यय करती रहती थी।
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