उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘मैंने प्रबन्ध किया है कि उसको पचहत्तर रुपया महीने भेजती रहूँ। पच्चीस रुपये उसको वजीफा मिल जायेगा और सौ रुपये में उसकी गुजर मजे में हो जायेगी।’’
‘‘यह सब तुम्हारे मन का भ्रम है। न सौ रुपये में उसका निर्वाह हो सकेगा, न ही तुम पचहत्तर रुपये प्रति मास भेज सकोगी।’’
‘‘यत्न तो करूँगी।’’
‘‘सब व्यर्थ है। देखो महादेव! उर्मिला को मना कर दो ताकि वह ऐसा न करे।’’
‘‘परन्तु पिताजी, मुझको यह समझ नहीं आ रहा कि मैं अथवा आप मना क्यों करें? वह मेरी बहन के लड़के को दे रही है। अपनी बहन के लड़के को देती, तब भी यह बात विचारणीय थी।’’
‘‘इस सब वितण्डावाद को छोडो और मैं कहता हूँ कि यह रुपया नहीं भेजना चाहिये।’’
इस प्रकार का आदेश सुन उर्मिला उठ खड़ी हुई और अपने कमरे की ओर जाने लगी तो शिवदत्त ने कह दिया, ‘‘बहू! सुन लिया है न! यदि कभी सहायता दी जायेगी तो मेरे द्वारा ही दी जायेगी।’’
‘‘मैंने सुन लिया है, पिताजी! परन्तु इस आज्ञा को मैं मानूँगी ही, अभी नहीं कह सकती।’’
‘‘क्यों?’’
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