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उपन्यास >> पाणिग्रहण

पाणिग्रहण

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :651
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 8566

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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव


विष्णु जानता था कि उसका पिता इतना रुपया देना स्वीकार नहीं करेगा। इसके विपरीत उसने तो महादेव के विवाह पर बीस हजार रुपया नकद तथा भूषणादि के रूप में लिया था। इस कारण यह प्रस्ताव सुन, वह भौचक्का हो, ऐना का मुख देखने लगा। ऐना आँखें नीचे किए चाय पी रही थी।

विष्णुस्वरूप ने ऐना से पूछ लिया, ‘‘तुम क्या कहती हो, ऐना!’’

उत्तर विलियम ने दिया, ‘‘यह क्या कहेगी? यह नाबालिग है। यदि इसने कुछ झगड़ा किया तो मैं तुमको पुलिस के हवाले करा दूँगा। तुमने एक नाबालिग लड़की को घर से भगाया है।’’

‘‘देखो ऐना!’’ विष्णु ने कहा, ‘‘मैं तुमसे प्रेम करता हूँ। मैं तुम्हारे लिये सब-कुछ करने के लिये तैयार हूँ। परन्तु मेरे पिताजी इस प्रकार की सौदेबाजी पसन्द नहीं करेंगे, मैं...।’’

बात बीच में ही रोककर विलियम ने कह दिया, ‘‘भावात्मक पागलपन मुझको पसन्द नहीं। मैं इसको लेकर ग्रीन में ठहरा हुआ हूँ। तुम अपने पिता को यहाँ तार देकर बुला लो। मैं चाहता हूँ कि उससे बात करूँ। जब उसको पता चलेगा कि उसके लड़के ने भारी अपराध किया है, तो वह मान जायेगा।’’

इतना कह वह मेज से उठ खड़ा हुआ और ऐना को लेकर कमरे से बाहर निकल गया। विष्णु उनको जाते हुए देखता रह गया। दरवाजे से निकलते समय ऐना ने घूमकर एक नजर विष्णु की ओर देखा। उसकी आँखें तरल हो रही थीं। एक क्षण में वे चले गये।

उनके चले जाने पर विष्णु गम्भीर भाव से अपने मन में विचार करने लगा कि वह अब क्या करे। यह बात तो निश्चित थी कि न तो उसके पिता के पास बीस हजार रुपये थे और न ही वह अपने पिता से कहने का साहस रखता था कि इतना रुपया ऐना के नाम पर लिख दे।

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