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उपन्यास >> पाणिग्रहण

पाणिग्रहण

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :651
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 8566

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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव


विष्णु ने एकान्त पा सड़क के किनारे लगे लैम्पपोस्ट के नीचे खड़े हो, ऐना का दिया पर्चा जेब से निकालकर पढ़ा।

लिखा था–‘‘डियर स्वरूप! इस नवाबजादे ने मेरे बाप की शर्त पूरी कर दी है, जिससे मेरा इससे विवाह हो गया है। इस पर भी मेरे दिल में तुम्हारे लिये बहुत प्रेम है। परसों ‘रॉयल’ में सायं साढ़े पाँच बजे कॉफी पीने आओ तो हम तुमको मिल सकेंगे। मैं चाहती हूँ कि यदि तुम्हारे दिल में मेरे लिये कुछ भी ‘लव’ शेष है तो तुम मुझको इस सन्देश के अनुसार मिलने का यत्न करोगे। पश्चात् मैं अपनी योजना बताने का यत्न करूँगी।

‘‘मैं इसके गाँव के हरम में कैद रह-रहकर ऊब गयी हूँ। मैं कोशिश कर रही हूँ कि यह लखनऊ में एक कोठी बना रहने लगे। तब डियर! हमारा साथ होगा।’’

विष्णुस्वरूप को अभी ऐना भली-भाँति स्मरण थी। उसका प्रेम स्मरण कर वह फड़क उठता था, परन्तु वह इस प्रकार एक नवाब के लड़के की विवाहित स्त्री के साथ सम्बन्ध बनाना नहीं चाहता था।

जब वह बम्बई से लौटा था तो अपने पिता से उसकी खुलकर बात हुई थी। शिवदत्त, उसका पिता, उसको अगले दिन गोमती के किनारे एक एकान्त स्थान पर ले गया था और वहाँ ले जाकर उसने कहाँ–‘‘विष्णु! मैं तुमको इस स्थान पर इसीलिये लाया हूँ कि तुम मुझको बम्बई भाग जाने का वास्तविक कारण बता सको। मुझको माँ के डाँटने-भर से तुम्हारे भाग जाने पर विश्वास नहीं आया। वह तो बस बहाना ही प्रतीत होता है।’’

विवश विष्णु को सब बात बतानी पड़ी। इस पर शिवदत्त ने बताया, ‘‘मैं समझता हूँ कि यह अच्छा ही हुआ है। वह इस कारण कि ये ऐंग्लो-इण्डियन लड़कियाँ इतनी खर्चीली होती हैं कि तुम्हारी जैसी हैसियत का युवक उनको रख नहीं सकता।

‘‘इनके दिमाग में चैस्टिटी (पवित्रता) का कोई मान नहीं और विवाह हो जाने के पश्चात् भी यदि इनकी आवश्यकताएँ पूर्ण न हों तो ये अपने-आपको बेचने के लिये भी तैयार हो जाती हैं।

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