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उपन्यास >> पाणिग्रहण

पाणिग्रहण

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :651
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 8566

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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव


‘‘मैं समझता हूँ कि तुम अपनी पत्नी का अपने में निष्ठाहीन होना पसन्द नहीं करोगे। पसन्द करना अस्वाभाविक भी है।

‘‘देखो, एक किसान अपने घर से बीज उधार दे सकता है, परन्तु वह अपनी भूमि उधार देने के लिये तैयार नहीं होता। जो किसी प्रलोभन में भूमि उधार दे देते हैं, उनको वह वापस नहीं मिलती।’’

‘‘परन्तु पिताजी! वह मुझसे बहुत प्रेम करती है। जब वह अपने पिता के साथ होटल के कमरे से निकलने लगी थी तब उसकी आँखों में आँसू स्पष्ट दिखाई देते थे।’’

‘‘यह सब भ्रम है, विष्णु! मैंने बहुत औरतें देखी हैं। ये आँसू तुमसे वियोग के नहीं थे, प्रत्युत् तुम्हारे बाप से बीस हजार रुपये न पा सकने के लिये थे।

‘‘देखो, मेरा कहा मानो। पढ़कर बी० ए० पास करो और मैं तुमको उस आवारा लड़की से अधिक सुन्दर और वफादार पत्नी ला दूँगा।’’

अपने पिताजी की ये बातें अब ऐना के कागज के पुर्जे पर लिखी योजना पढ़कर उसे स्मरण हो आयी थीं। उसको अनवर हुसैन में किसी प्रकार का दोष प्रतीत नहीं हुआ था। इस पर भी भी ऐना उसको धोखा देने की बात पर विचार कर रही थी। वह निश्चित समय रॉयल कॉफी हाउस में नहीं गया। रहमत और अनवर हुसैन कॉफी पीने आये। वे कहाँ एक घण्टा-भर बैठे रहे, खाते-पीते रहे। ज्यूँ-ज्यूँ समय व्यतीत होता गया, रहमत उदास होती गयी। विष्णु आ नहीं रहा था।

अगले दिन उसने वापस बाराबंकी लौट जाना था। बाराबंकी जाने के लिये वह विवश तैयार हो गयी, और इसी शर्त पर तैयार हुई थी कि वह एक महीने के पश्चात् पुनः लखनऊ आयेगी।

अनवर हुसैन ने यह वायदा कर दिया था कि जल्दी ही वह अपनी एक कोठी लखनऊ में बन वनवायेगा और तब वह वहाँ उसको लाकर रखेगा।

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