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उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘क्यों, क्या बात है?’’ अनवर ने पूछा।
उत्तर असगरी बेगम ने दिया, ‘‘हजरत! आपकी जड़ों में तेल दिया जा रहा है और आप एक वफादार नौकर की मानिन्द खून-पसीना एक कर रहे हैं।’’
‘‘क्या हुआ है? कुछ बताओ भी तो?’’
‘‘आपके वालिद शरीफ वकील को बुलाकर वसीयत लिख रहे हैं। उस वसीयत में आपकी जगह क्या है, आपको मालूम करनी चाहिए। जो कुछ हम जान सकी हैं, वह तो यह है कि आप एक महज गुजारेदार बना दिए गये हैं। गुजारा भी इतना, जो किसी क्लर्क का हक हो सकता है।’’
‘‘आखिर कैसे हुआ यह? किसने बताया है आपको?’’
‘‘यह हमारा अपना राज है। आप जाइये और देख लीजिए कि हमारी बात सही है या नहीं।’’
अनवर सीधा नवाब साहब के कमरे में जा पहुँचा। इन दिनों ऐना लखनऊ हिवट रोड की कोठी पर थी। नवाब साहब सप्ताह में एक बार उसके पास जाते थे और शेष दिन गाँव में ही रहते थे।
वास्तव में नवाब साहब अकेले नहीं थे। उनके साथ एक और सज्जन बैठे हुए थे। दोनों खुश और संतुष्ट प्रतीत होते थे। दोनों के सामने सोडा और व्हिस्की की बोतलें खुली हुई थीं। साथ ही मुर्गें-मसल्लम की एक-एक प्लेट रखी थी। बहुत ही मजे से नाश्ता हो रहा था।
अनवर को आये देख नवाब साहब ने उसको इस दावत में सम्मिलित होने का निमंत्रण दे दिया।
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