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उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
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अनवर ने बैठते ही पूछ लिया, ‘‘इन साहब की तारीफ?’’
नवाब साहब ने परिचय करा दिया, ‘‘ये हैं लाला विश्वेश्वर दयाल जी सक्सेना। आप लखनऊ में एक मशहूर एडवोकेट हैं। मेरा एक काम था, जिसकी वजह से इनको यहाँ बुलाया था।’’
‘‘क्या काम था, अब्बाजान?’’
‘‘अब बूढ़ा हो रहा हूँ न, और खुदा के फजल से कुनबा लम्बा-चौड़ा हो गया है। खयाल आया कि अपने इस जहान से चलने से पहले सबको कुछ-न-कुछ देता जाऊँ। इसलिए वसीयत लिखाने का खयाल था। इनको समझा दिया है। ये आज ही लखनऊ चले जायेंगे। तीन दिन के बाद इन्होंने मसविदा बनाकर लाने का इकरार किया है। वसीयत की रजिस्ट्री तो पीछे होगी।’’
‘‘और किस-किसको क्या-क्या दिया है?’’
‘‘यह मेरा अपना राज है। मैं नहीं चाहता कि मेरे मरने से पहले यह राज खुले। इस पर भी सबको तसल्ली होगी, ऐसा मेरा यकीन है।’’
अनवर इस गोल-मोल बात से सन्तुष्ट तो नहीं हुआ। इस पर भी उसने चुप ही रहना ठीक समझा। उसका विचार था कि इन वकील साहब से पृथक् बात कर सब कुछ पता कर लेगा। वह वकीलों को डॉक्टरों की तरह ईमानदार नहीं समझता था।
अनवर शराब पीने में शामिल हो गया। एकाएक मिस्टर सक्सेना ने घड़ी में समय देखा और उठ खड़ा हुआ। उसने कहा, ‘‘नवाब साहब! अब इजाजत दीजिए। तीसरे दिन फिर हाजिर हो जाऊँगा।’’
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