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उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘बहुत अच्छी बात है।’’ नवाब साहब ने कह दिया, ‘‘पर आप यहाँ आने से पहले पता कर लीजियेगा कि मैं यहाँ हूँ अथवा लखनऊ में। मैं कल लखनऊ जाने का इरादा रखता हूँ।’’
मिस्टर सक्सेना कमरे से बाहर निकला तो अनवर भी उसके साथ हो लिया। वकील अपनी मोटर में आया था। जब वह अपनी मोटर में सवार हुआ तो अनवर ने पूछ लिया, ‘‘आप सीधे लखनऊ जा रहे हैं क्या?’’
‘‘जी हाँ।’’
‘‘अगर तकलीफ न हो तो मैं भी आपके साथ चलूँ? आज शाम को वहाँ एक जरूरी काम है और मोटर बिगड़ी पड़ी है।’’
‘‘तो आइये। पर कितनी देरी लगेगी तैयारी में?’’
‘‘तैयारी की जरूरत नहीं। बस, दो मिनट में बेगमों को इत्तला कर दूँ कि लखनऊ जा रहा हूँ।’’
‘‘यही तो सबसे बड़ा और लम्बा काम है। अच्छा देखिए, मैं आपकी पाँच मिनट तक प्रतीक्षा करता हूँ। आप जल्दी लौट आइये।’’
अनवर भीतर गया और नोटों का एक बंडल उठा, अचकन की अन्दर की जेब में ठूँस, बाहर चला आया। वकील ने मुस्कराते हुए कह दिया, ‘‘आपकी बेगम साहिबा बड़ी भली औरत मालूम देती हैं, जो इतनी जल्दी आपको रुखसत कर दिया है।’’
‘‘जी। मगर आपको मालूम होना चाहिए, बेगम नहीं बेगमात हैं। चार है, चार। समझे आप?’’
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