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उपन्यास >> पाणिग्रहण

पाणिग्रहण

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :651
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 8566

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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव


‘‘वह तो मुझको मालूम है। मगर क्या इन दो मिनटों में चारों से मुलाकात कर आये हैं। यह बात मानने की नहीं।’’

‘‘चारों एक ही जगह थीं। उनको यह कह कि कल लौट सकूँगा, वहाँ से चला आया हूँ। अब चारों एक-दूसरे का मुख देखती होंगी।’’

‘‘यह तो बहुत जुल्म किया है आपने?’’

‘‘एक हो तो मुश्किल हो जाती है। चारों में से बच निकलना आसान है।’’

सक्सेना हँस पड़ा और अपनी मोटर में ड्राइवर के स्थान पर बैठ गया। अनवर उसके पास बैठकर बोला, ‘‘यूँ तो चार बीवियों के और भी मजे हैं। सिर्फ एक ही दिक्कत हैं कि तीन साल में छः बच्चे हो गये हैं। जहाँ घर में बच्चों की आवाज कभी सुनाई नहीं देती थी, अब चीं-पीं से दिमाग खराब रहता है।’’

सक्सेना मुस्कराता हुआ गाड़ी चलाने लगा था। अनवर ने अपनी कहानी जारी रखी–‘‘जहाँ एक से अधिक बीवियों में फूट हो जाने पर आसानी से उन पर राज्य किया जा सकता है, वहाँ उनमें एका हो जाने पर खाविन्द की भी मुसीबत बन जाती है।’’

‘‘मगर एका और फूट तो बीवियों के अपने बस की बात है न। खाविन्द तो बेबस ही उनकी तबीयत के मातहत ही रहता है।’’

‘‘हाँ, इस पर भी एक लायाक और चालाक खाविन्द बहुत कुछ कर सकता है। मसलन मेरी चारों बीवियाँ सगी बहनें हैं। पहले तो उनमें काफी गठजोड़ रहा और मेरी मुसीबत रही, मगर खुदावन्द करीम ने मेहर की और एक को हमल ठहर गया। बस फिर क्या था! दूसरी बेगमें उससे तनकर रहने लगीं। मैंने इस तनाव से फायदा उठाया और उसको तोहफे देना शुरू कर दिया। उससे उसकी दूसरी बहनें उससे ही नाराज रहने लगीं।’’

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