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उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘तो नवाब साहब! दो हजार कर दीजिए। देखिए! कल तक मसविदा तैयार हो जायेगा। आप रुपया लेकर जाइयेगा। वह आपको देखने को मिल जायेगा।’’
‘‘सक्सेना साहब, डेढ़ हजार ठीक रहेगा। इससे ज्य़ादा की अभी गुँजाइश नहीं है।’’
सक्सेना चुप रहा, अर्थात् वह राजी हो गया।
उस दिन सायंकाल अनवर अपनी कोठी में बैठा-बैठा विचार कर रहा था कि क्या मजे के दिन थे जब ऐना के साथ वहाँ रहता था। अब वह चार दकियानूसी खयाल की लोभी, लालची और साजिश करने वाली बीवियों से परेशान हो क्या-क्या गुनाह करने पर मजबूर हो रहा है।
असगरी ने उसको ऐना का काम तमाम करने के लिए डॉक्टर को रिश्वत देने की बात कही थी और बेवकूफ बनकर कहने चला गया था। भला हो उस डॉक्टर का जिसने सिर्फ डाँट-डपटकर ही छोड़ दिया। अब उसी बेगम ने वकील को रिश्वत दे फुसलाने के लिए भेजा था। वकील का भला हो कि वह डेढ़ हजार लेकर ही वसीयत दिखाने के लिये राजी हो गया है। मगर यह असगरी महापाजी है। असल बात तो वसीयत पढ़ने के बाद होने वाली है खुदा जाने कौन जुर्म करने के लिए क्या कहेगी?
एकाएक उसको खयाल आया कि ऐना से मिलकर पता करना चाहिए। हो सकता है उसको कुछ वसीयत के बारे में ज्यादा पता हो। वह उठा और कपड़े पहन कोठी से बाहर निकल आया। ताँगा कर वह ऐना की कोठी पर जा पहुँचा।
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