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उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘अब घर का काम मुझसे होता नहीं। आपने कृपा कर नौकरानी रख दी है। इसलिये वक्त निकालने के लिये पढ़ने के अतिरिक्त और क्या कर सकती हूँ?’’
‘‘मैं पढ़ने से मना नहीं करता। तुम अंजील पढ़ा करो। ऐसे वक्त में प्रभु के वाक्य बहुत ही शान्ति और सुख के देने वाले होंगे।’’
‘‘मुझको एक चिन्ता लग रहा है कि मैं आपके किसी काम के योग्य नहीं रही हूँ।’’
‘‘तुम मेरा ही तो काम कर रही हो। देखो टिम! मैं नित्य परमात्मा से दुआ किया करता हूँ कि वह वह तुमको इस मुश्किल में आश्रय दे। तुम मेरे बच्चे की माँ हो रही हो। इसलिये मैं तुम्हारी सेहत के लिये दुआ करता रहता हूँ।’’
टिमोथी को इस वार्तालाप से संतोष हुआ। अब उसके मस्तिष्क में अपने पति की अरुचि उसके हित के लिए ही प्रतीत होने लगी। जिस दिन से उसने बताया था कि वह डॉक्टर से मिलकर आई है, वह उसके नित्य घूमने-फिरने, उसकी रुचि का भोजन, वस्त्र इत्यादि का प्रबंध करने लगा। इतनी सहानुभूति और सहायता देख उसने एक दिन कह ही दिया, ‘‘आप मेरे विषय में इतनी चिन्ता क्यों करते हैं? मैं सामान्य रूप से ठीक ही हूँ।’’
‘‘डियर टिम! यह मैं तुम्हारे लिये कुछ भी नहीं कर रहा। यह तो सब अपने लिये ही कर रहा हूँ। जब तक हम पति-पत्नी हैं तब तक हमारे सब काम दोनों के लिये ही हैं। तुम खुश रहो, संतुष्ट रहो और आराम से रहो, बस, यही तो मैं चाहता हूँ।’’
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