उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
इस पर भी इन्द्रनारायण अपने पिता के घर के वातावरण में अधिक प्रसन्न था। अपने नाना शिवदत्त के घर में तो उसको सदा ऐसा अनुभव होता रहता था मानो वहां सर्वथा अपरिचित है।
सायंकाल शिवदत्त के मित्र एकत्रित हो जाते थे और पान-सुपारी चबाते तथा सिगारों को फूँकते हुए वे या तो दफ्तर की बातें करते रहते थे अथवा सिनेमा के ऐक्टर-ऐक्ट्रेसों की जीवनचर्या पर बातचीत होती रहती थी। इन्द्र को ऐसी बातें बिलकुल नहीं भाती थीं। वह अपने कमरे में बैठा अपने कॉलेज की पढ़ाई करता रहता था।
विष्णु के विषय में भी उसको अरुचि हो रही थी। रजनी से वार्ता के पश्चात् तो वह विष्णु के विषय में अति भयंकर कल्पनाएँ करने लगा था।
दुरैया में तो घर के सब लोग, रमा और राधा भी, प्रातःकाल चार बजे उठ पड़ते थे और स्नानादि से निवृत्त हो सब हवन, पूजा-पाठ में लग जाते थे। उसके पिता तो हवन के पश्चात् एक घंटा-भर गायत्री-मंत्र का जाप करते थे। उसकी माता विष्णु सहस्रनाम का जाप करती। रमाकान्त महाभारत का पाठ करता था और राधा वाल्मीकि रामायण पढ़ती थी। इस स्वाध्याय की छूत उसको भी लग रही थी और वह भी कभी भागवत, कभी गीता, कभी अभिज्ञान शाकुन्तल पढ़ने लग जाया करता था।
एक दिन रजनी का पत्र आया। बन्द लिफाफे में पत्र था। पिता ने डाकिये से पत्र लिया और उसके लिफाफे को ऊपर-नीचे से देखते हुए, घर के भीतर लाकर इन्द्रनारायण को आवाज देने लगा, ‘‘इन्द्र! बेटा इन्द्र! यह देखो, तुम्हारा पत्र है।’’
इन्द्र इस समय अंग्रेजी का एक उपन्यास पढ़ रहा था। पत्र की बात सुनते ही सतर्क हो उठा और हाथ पसारकर बोला, ‘‘लाइये।’’
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