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उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘आत्मा परमात्मा का एक रूप मात्र है। आत्मा और परमात्मा में इतना ही अन्तर है कि परमात्मा सर्वज्ञ, सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान है और आत्मा उसका एक अंश मात्र होने से आंशिक ज्ञान और शक्ति का स्वामी होता है। अवतार भी उस सर्वशक्तिमान, सर्वगुणसम्पन्न परमात्मा का एक अंश मात्र ही होता है। हाँ, उस मनुष्य में साधारण मनुष्यों की अपेक्षा परमात्मा का अंश कहीं अधिक होता है। उसमें साधारण आत्माओं से विशेष गुण होते हुए भी परमात्मा के समान पूर्णता नहीं होती। अतः यदि कोई बात मनुष्यों के समान उसमें होती है तो वह स्वभाविक ही है। इस पर भी वह मनुष्यों से श्रेष्ठ, अधिक गुणसम्पन्न और अधिक सफल होता है।’’
रजनी रामाधार की इस व्याख्या से सन्तुष्ट हुई अथवा नहीं, परन्तु चकित अवश्य रह गयी। यह ऐसी व्याख्या थी, जो एक साधारण हिन्दू नहीं मानता था। इस पर भी यह अधिक युक्तियुक्त थी। उसने इस पर एक अन्य संशय उत्पन्न कर दिया। उसने पूछ लिया, ‘‘काका! आपके कहने का अर्थ मैं यह समझी हूँ कि हम भी परमात्मा के अवतार ही हैं। यह ठीक है कि उतने बड़े नहीं, जितने कृष्ण अथवा राम आदि हुए हैं।’’
‘‘हाँ, वेदान्त ऐसा ही मानता है। सकल जगत् परमात्मा का रूप ही है। इसमें हम सब बराबर नहीं। कुछ परमात्मा का अंश आत्मा अधिक उन्नत अर्थात् निर्मल होता है। वे परमात्मा के अधिक समीप होते हैं। कुछ में परमात्मा का अंश कम होता है, अर्थात् वे परमात्मा के गुणों से कुछ दूर होते हैं।
‘‘ज्ञान से हम आत्मा का कलुष मार्जन कर सकते हैं और ज्ञान साधु-सन्त एवं विद्वानों से शास्त्रादिक करने से होता है। ज्ञान पूर्ण हो जाने से आत्मा परमात्मा में पूर्ण रूप से मिल जाता है अर्थात् मोक्ष प्राप्त कर लेता है।’’
इस पर केवल एक संशय और रह गया था। रजनी ने पूछा, ‘‘परमात्मा के कुछ अंश मलिन एवं अशुद्ध ज्ञानहीन क्यों होते हैं?’’
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