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उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘यह तो रजनी बेटी! मैं तुमको उस दिन बताऊँगा, जब अपने में पूर्ण रूप से निर्मलता, शुद्धता तथा ज्ञान की पूर्णता प्राप्त कर लूँगा। इस अवस्था में, जिसमें मैं हूँ, यह सब मेरी जानकारी से परे की बात है।’’
इन्द्र और रजनी को दुरैया में आये अभी एक ही सप्ताह बीता था कि दोनों को एक ही दिन तार प्राप्त हुए। इन्द्रनारायण को यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार का और रजनी को उसके पिता का। दोनों में केवल इतना लिखा था–‘‘तुरन्त चले आओ।’’
इन्द्र को तो समझ आया था कि उसके वजीफे के विषय में कुछ है। उसने इस संबंध में प्रार्थना की हुई थी। परन्तु रजनी को यह समझ नहीं आया कि उसको किसलिये बुलाया गया है। नगर से दूर वह इस गाँव में सुख अनुभव कर रही थी। उसने अपनी माँ को लिखा भी था कि वह यहाँ आराम अनुभव कर रही है। वह अभी कुछ दिन और यहाँ रहना चाहती है। इस पर भी तार पहुँचने पर वह चिन्ता अनुभव करने लगी थी।
दोनों लखनऊ पहुँचे और इन्द्र यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार से मिलने के लिये चला गया। रजनी माँ के सामने उपस्थित हो पूछने लगी, ‘‘माँ! तार गया था। क्या बात है?’’
‘‘अपने पिता से पूछना। वह सायं साढ़े चार बजे आने को कह गये हैं।’’
इससे तो रजनी को और भी चिन्ता हुई। इन्द्रनारायण भी एक घण्टा पहले चला आया। उसके बियाना में अध्ययन के लिये तीन सौ पौंड वार्षिक की छात्रवृत्ति स्वीकृत हुई थी। साथ ही उसको कह दिया गया कि वह अभी ही चल पड़े तो वहाँ दाखिले के समय से पूर्व पहुँच सकेगा।
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