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उपन्यास >> पाणिग्रहण

पाणिग्रहण

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :651
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 8566

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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव


अतः वह तैयारी के लिए शीघ्र लौट आया था। उसने जब अपनी बात बताई तो सब प्रबन्ध करने के लिये रायसाहब की प्रतीक्षा होने लगी।

सायंकाल रायसाहब प्रोफेसर आनन्द को साथ ले आये और रजनी को बुलाकर आनन्द के विचार बता दिये गये। पश्चात् एक-दूसरे को समझने के लिये दोनों को पृथक् अवसर दे दिया गया, ताकि बातचीत कर सकें। रजनी तो समझ ही नहीं सकी थी कि क्या पूछे और क्या समझने का यत्न करे। जब प्रो० आनन्द अपने विषय में कह चुका तो रजनी बिना एक शब्द कहे उठ पड़ी और बाहर बरामदे में, जहाँ उसके पिता बैठे थे और इन्द्रनारायण से बातचीत कर रहे थे, आकर बैठ गयी। रायससाहब समझते थे कि रजनी को पूर्ण बात समझने में एक घंटा-भर तो अवश्य लगेगा। परन्तु वह तो पाँच मिनट के भीतर ही उठकर चली आयी थी। इससे पिता ने पुत्री की ओर प्रश्नभरी दृष्टि से देखा तो रजनी ने कह दिया, ‘‘पिताजी! जैसा आप उचित समझें कर दीजिये। मैं अपना कर्तव्यपालन करने का यत्न करूँगी।’’

रायसाहब ने विवाह में जल्दी इसलिये की कि रजनी की इच्छा थी कि इन्द्र के रहते ही विवाह हो जाये। इसके बाद सब-कुछ आँधी के वेग से किया गया। निश्चय के तीसरे ही दिन विवाह हो गया। विवाह के तुरन्त ही पश्चात् इन्द्र बॉम्बे मेल से बम्बई रवाना हो गया। वहाँ से वियाना जाना था। इन्द्र के परिवार के सब लोग रजनी के विवाह पर और इन्द्र को विदा करने के लिये लखनऊ में ही आये हुए थे।

रजनी के विवाह के तीन मास बाद ऐना वहाँ आयी थी। वह आयी तो थी इन्द्र और रजनी का धन्यवाद करने, परन्तु रजनी की माँग में सिंदूर लगा देख समझ गयी।

‘‘तो तुम भी किसी से ‘अटैच’ (सम्बद्ध) हो गयी हो?’’ ऐना ने मुस्कराते हुए पूछ लिया।

रजनी ने अपने विवाह के एकाएक तय होने के विषय में बताया, तो ऐना को ऐसा प्रतीत हुआ कि रजनी के मन में विवाह का उल्लास नहीं था। केवल कर्तव्य का निष्ठा-भाव था।

इस भेंट के पाँच मास तक रजनी और ऐना की आपस में भेंट नहीं हुई। रजनी को भी अपने नवीन जीवन को स्थिर करने में तीन-चार मास लग गये। कई दिन के विचारोपरान्त पति-पत्नी में यह निश्चय हुआ कि रजनी न तो मेडिकल कॉलेज की नौकरी करेगी, न ही चिकित्सा-व्यवसाय करेगी। परन्तु रजनी ने अपना दृढ़ मत बता दिया। उसने कहा, ‘‘मैंने चिकित्सा-कार्य सीखा है और इस शिक्षा का लाभ समाज को अवश्य मिलना चाहिये।’’

‘‘परन्तु मैं यह ठीक नहीं समझता कि मेरी पत्नी को नौकरी करनी पड़े, अथवा वह रोगियों की सेवा कर उनसे फीस प्राप्त करने के लिये उनका मुँह देखती फिरे। मेरे घर की रानी संसार की भी रानी बनकर रहेगी।’’

‘‘तो आप यह नौकरी क्यों करते हैं?’’ रजनी ने पूछ लिया।

‘‘इसलिये कि समाज में मूर्खता इतनी बढ़ गयी है कि नौकरी के बिना कोई भी स्वेच्छा से समाज के उपयोगी अंगों का भरण-पोषण नहीं करता, अतः राज्य का मुख देखना पड़ता है। परन्तु रजनी! इसका अर्थ यह कैसे हो गया कि पूर्ण परिवार इस चक्की में पिसे? परिवार के कम-से-कम सदस्यों को यह शूद्रवृत्ति स्वीकार करनी चाहिये।’’

‘‘तो यह शूद्रवृत्ति है क्या?’’

‘‘हाँ। मैं अपनी विद्या और अनुभव को स्वेच्छा से प्रयोग नहीं कर सकता। मैं तुमको एक घटना सुनाता हूँ। पिछले वर्ष की बात है। गणेश गंज के एक वैद्यजी ने मुझको बताया था कि वरुण की छाल का क्वाथ शरीर के भीतर की शोय को लाभ देता है। मैंने उनको इसका प्रयोग करते देखा था। मैंने उस छाल का प्रयोग किया। सफलता शत-प्रतिशत मिली। परन्तु वह क्वाथ कैसे कार्य करता है, वह कृमिनाशक है अथवा केवल शोषण से सृजन को लाभ करता है, देखना चाहता था। इसके लिए विस्तृत परीक्षण की आवश्यकता थी। मैं हस्पताल के रोगियों पर प्रयोग कर उनके रक्तादि की परीक्षा करने लगा तो बात प्रिंसिपल साहब के पास पहुँच गयी। उन्होंने मुझको बुलाकर मुझसे इस विषय में पूछा। जब मैंने पूर्ण वृत्तान्त बताया तो बोले, ‘इस छाल को पैरिस ‘फिशर लेबोरेटरी’ में भेज दो। जब तक वहाँ से इसकी रिपोर्ट न आये, इसका प्रयोग न करो।’

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